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मंगलवार, 15 जनवरी 2008

जल्लिकट्टू

खबर है कि सर्वोच्य न्यायालय ने अपनी (अति) सक्रियता के रिकार्ड को बरकरार रखते हुवे तमिलनाडु में आयोजित की जाने वाली पारंपरिक “जल्लिकट्टू” अर्थात “सांड़ो की लडाई” पर प्रतिबंध लगा दिया। देखा जाए तो खबर में कुछ भी खास नही लगता है पर अपने खबरची तो खबरची ठहरे जिसे चाहे खास बना दे जिसे चाहे खाक, वैसे भी विज्ञापनों के बीच छोटी-मोटी खबरे छापना उनकी पुरातन मजबुरी ठहरी। पर ये बात कबीरा की समझ से परे है कि न्यायालय के हालिया फैसले की खबर से हमारे मोहल्ले के छुटभय्यो को भला क्यो सांड सूंघ गया।

वैसे भी प्रतिबंध लगाने या हटाने का आजकल फैशन है, हमारी “सांस्कृतिक पोलिस” तो अनेको वर्षो से ख्रिसमस की प्रार्थनाओं पर, ताजियो पर, चित्र प्रदर्शनियों पर, हबीब तनवीर के नाटको पर, आमिर की फिल्मों पर, युवक – युवतियों के प्रेम के इजहार पर या लडकीयों के जिंस या स्कर्ट पहनने पर लाठी के जोर पर प्रतिबंध लगवाते आये है इनकी लाठी का जोर सांडो ने तो क्या सारे देश ने देखा है। कहा जाता है कि जिस तरह ताले शरीफो के लिए होते है उसी तरह प्रतिबंध भी शरीफो के लिए होते है लेकिन अपवाद भी बगैर ढुंढे ही मिल ही जाते है। अब जरा आप ही देखिये समस्त सामाजिक-सांस्कृतिक-कानूनी बंधनो से परे हमारे शरीफ खाकी नेकर - केसरिया दुपट्टाधारी ठुल्ले सती महिमामंडन, नंगे शस्त्रो को लेकर जुलुस निकालने, बहुविवाह करने, दहेज लेनदेन पर लगे प्रतिबंध हटवाने के लिये अपने घर से लेकर दिल्ली तक जंगी संघर्ष कर चुके है।

पुराने गिले शिकवे भुलाकर संक्रांति के शुभ अवसर पर फार लेफ्ट से फार राईट, जी।ओ. से एन.जी.ओ., भगवा पार्टी से पंजा पार्टी, हिन्दू-मुस्लिम-इसाई-… सभी धर्मो के छटे हुवे कट्टरपंथीयों की एक सर्वदलीय बैठक आयोजित की गयी। खबर लगते ही कबीरा भी चौपाल पर जा पहुचा, वहा पता चला कि - भगवा पार्टी बडी दुखी है कि माननीय सर्वोच्य अदालत भला कैसे ऎसा कोई भी प्रतिबंध लगवा सकती है वो भी तमिलनाडू में। यह तो सरासर उसके अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण का मामला है। अभी हाल ही में भगवा पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने धर्मसभा में प्रवचन दिया कि धर्म के बगैर राजनीति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, कि वे धर्म की राजनीति करते है और ताउम्र करते रहेंगे। इस तरह भगवा पार्टी के अनुयायियों के लिये आगामी चुनावो तक रामसेतु जैसे धर्म की रक्षा के ज्चलंत धार्मिक मुद्दे को छोड कोई दूसरा मुद्दा जबान पर भी लाया जाना धर्मद्रोह अर्थात राजद्रोह का मामला बनता है, वैसे भी सांडो की लडाई जैसे पारंपरिक खेल पर रोक लगाना हिन्दू संस्कृति का अपमान है। लेकिन क्या करे मजबूरी का नाम महात्मा गांधी! कानून का उल्लंघन करना या अदालती आदेशो की अवहेलना करना एक अलग बात है वो तो हम आजादी के बाद से ही करते आये है, लेकिन माननीय सर्वोच्य न्यायालय के किसी भी आदेश को मौखिक या सैद्धांतिक चुनौती देना “आ सांड मुझे मार होगा”, अखबारो में बडी-बडी खबरे छपेंगी, टीवी पर बहसे चलेंगी, सभी दुर बडी थू-थू होगी। वैसे भी बडे-बुजुर्ग कह गये है कि राजधर्म के अनुसार ऎसी किसी भी विकट परिस्थिती से बचे रहने में ही पुरूषार्थ है “राज बचा तो लाखो पाये”। अब भला भगवा पार्टी कोई लाल झंडे वाली पार्टी तो है नही जो मजदूरो की हडताल पर लगाये न्यायालयिन प्रतिबंध को चुनौती दे अथवा न्यायापालिका द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन कर विधायिका के मामलो में टांग अडाने जैसे जनता को समझ में न आने वाले गंभीर मसलो पर न्यायपालिका से ही पंगा लेती फिरे।

वही पंजा पार्टी के भय्यो की समस्या कुछ दुसरी ही थी, उनका कहना था कि - आज सांडो की लडाई पर प्रतिबंध लगा दिया, यदि कल को शेरो के बाजार में सांडो की उछलकुद पर रोक लगवा दि तो बेचारे मनमोहन-चिदंबरम के विजन 2020 का क्या होंगा, बुश साहब भी बोत नाराज हो सकता है। अरे प्रतिबंध लगाना ही था तो इन साले माकपाईयो के विटो पर लगाना था जो गाहे-बगाहे सरकार की अमीरी - अमीरीका परस्त, बुश परस्त, ब्ला-ब्ला-ब्ला परस्त नितीयो पर प्रतिबंध लगाता है। उधर परमाणु करार के मसले पर भी इन्होंने ब्रेक …

भगवा पार्टी के प्रवक्ता ने पंजाईयो की बात काटते हुवे कहा कि - यह सब तो ठीक है अरे देखा नहीं क्या कैसे इनके नेताओ के एक बयान पर शेर बाजार का गुस्सैल सांड फुस्स होकर बेदम सा गिर पड पडता है। कबड्डी जाये, हाकी जाये, क्रिकेट भी जाये चुल्हें में हमारी बला से, लेकिन शेर बाजार में सांडो की घुड-दौड ऎसे ही सरपट चलते रहनी चाहिये, आज 21 हजार, कल 21 लाख, परसो 21 करोड़…। इस मसले पर भगवा-पंजा पार्टी की एक राय बनी, आखिर हो भी क्यो न यह इंडिया के 50 लाख अल्पसंख्यको के अस्तित्व का सवाल है। इन अल्पसंख्यकों के अलावा देश के संवेदी सूचकांक पर एफ।आई.आई. और उनकी मदद से देश में पी.एन. के गणित से आये वेश्वीक पूंजी के मालिको की रक्त मुद्रा का भी भविष्य टिका हुवा है, खुदा-न-खास्ता अगर लाल रंग देख शेर बाजार का सांड बिगढ़ गया तो सब कुछ चौपट हो जायेगा।

मोहल्ले के बुद्धिजीवी छाप एन.जी.ओ. कार्यकर्ता ने आगे चौपाल को संबोधित करते हुवे कहा कि – विरोध करना तो हमारा धंधा है ये न्यायालय को क्या हो गया है? अरे अगर प्रतिबंध लगाना ही था तो बंगाल की जनता पर भी लगाया जा सकता था जिसने सिंगुर फिर नंदीग्राम में फार लेफ्ट से फार राईट, जी.ओ. से लेकर एन.जी.ओ. के गठजोड की नाकाबंदी क्रांति, दो दर्जन से भी ज्यादा माकपा काडरो की हत्या, चार हजार से भी ज्यादा माकपा समर्थकों का ग्यारह माह के वनवास, 24 घंटे मिड़िया में माकपा विरोधी प्रचार के बावजूद बालागढ़ विधानसभा सीट के लिए हुवे उपचुनाव में माकपा प्रत्याशी को जितवा दिया।
बैठक के आखिर में छुटपुट विवादो के बाद सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसका निम्नलिखित मजमून एक सांध्य दैनिक के मुखपृष्ठ पर चार “सी” (क्रिकेट-सिनेमा-क्राईम-कामेडी) तथा पाचवे “एस” (फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी और उनकी प्रेमिका कार्ला ब्रूनी के रोमांस के गासिप) के बीच संपुर्ण सम्मान के साथ एक कालम में छापा गया।

“ममता बेण द्वारा टाटा की लखटकिया कार नेनो के विरोध को नजरअंदाज किया जाना दुखद है इससे भी अधिक दुखद है इस विरोध पर मिडीया का रवैया। बंगाल की जनता ने (भारतीयता का परिचय देते हुवे) माकपा को उपचुनाव में जिताकर इंडिया की जनता के साथ विश्वासघात किया है, हम इसका विरोध करते है साथ यह प्रण भी लेते है कि बंगाल की जनता के माथे पर लगे इस कलंक को पोछ कर रहेंगे। सिंगूर, नंदीग्राम में जो न हो सका हम नवचार में करके दिखाएगे, 30 साल तक गरीब किसानो को भूमि का वितरण भले ही करते रहे हो लेकिन चाहे जो हो बंगाल का ओद्योगिकीकरण माकपा को कभी न करने देंगे। देश में एक बडा आंदोलन खडा करके सुप्रिम कोर्ट के द्वारा बंगाल की जनता का बार-बार माकपा को वोट डालना प्रतिबंधीत करवाकर ही दम लेंगे।”

इसी अखबार के अंदर के किसी पन्ने पर एक खबर छपी थी जिसका शीर्षक था – “सुप्रिम कोर्ट के आदेश के बावजुद सांड़ो की लडाई का खेल जारी”। लेकिन माकपा के बालागढ़ उपचुनाव में जीत दर्ज करने की खबर को कबीरा अखबारों, पत्र-पत्रिकाओ, खोजी न्यूज-व्यूज चेनलो से लेकर इंटरनेटीया ब्लागो तक कही भी ढुंढ न सका।

कबीरा

1 टिप्पणी:

प्रदीप मिश्र ने कहा…

परेश भइया गजब ढा रहे हो। जम कर छीलो। बहुत गंदगी जम गयी है। जम रहो और उखाड़ते रहो।