

(AP Photo/Anjum Naveed)
ये धमाके या कौमी धुन!
पाकिस्तान में आम चुनाव के बाद पहली बार हुई हिंदुस्तान और पाकिस्तान के वजीरे खा जां (विदेश मंत्री) प्रणब मुखर्जी और शाह महमूद कुरैशी की मुलाकात है। पाकिस्तान दौरे में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मोहम्मद सादिक ने खुलासा किया कि आतंकवाद दोनों देशों के लिए खतरा बना हुआ है। यह बात पाकिस्तानी हुकूमत को उस महकमे के नुमांइदे ने फरमाई है, जिसके वजीर साहब को राह चलते अगवा कर लिया जाता है और बाद में पता चलता है कि जनाब वजीर साहब को तालिबान ने अगवा किया है। इस खबर की हैसियत ऐसी है, जैसे बिहार में स्कूल से वापसी पर किसी बच्चे को अगवा कर लिया और कुछ अर्से बाद फिरौती की खबर आई। जिस मुल्क में वजीर महफूज न हो, वहां के नुमाइंदे दावा करें दोनों मुल्कों के दरमियान अमन की और दहशतगर्दी की मुखालिफत की जबकि दहशतगर्दी की फसलों को सींचने वाले और तैयार पूरी दुनिया में तक्सीम करने वाले ये खुद हैं।
अब तो इस फसल की पैदावार इतनी हो गई है कि संभाले नहीं संभल रही, बल्कि खारदार झाड़ियों की तरह उन्हीं के दामन को चाक कर रही है। कभी लाहौर में धमाके, कभी इस्लामाबाद में, कभी वादी-ए-सबात गूंजती है, तो कभी डेरा इस्माइल खान, कभी रावलपिंडी लरजती है, तो कभी वजीरिस्तान। बेनजीर की रैली के दौरान लर्जा कराची और अगली रैली में कत्ल, कत्ल के वक्त फिर धमाका। धमाके न हुए मानो पाकिस्तान की कौमी धुन हो गई, जो सरहद से लेकर शहरों तक सुनाई देती है। इस खौफनाक आवाज के दरमियान पस्त हो जाती है मौत की चीखें, दम तोड़ देती हैं जख्मियों की आहोकराह। जब यह खौफनाक आवाज खामोश होती है, तो सिलसिला शुरू होता है उन आवाजों का जो आह की शक्ल में छाती पीटते और माथा पीटते करीबी रिश्तेदारों के दिल से होते हुए उनके रूंधे हुए गलों से निकलती है। इसके अलावा बेचारे कुछ कर भी नहीं सकते।
सियासत और दहशतगर्दी के दरमियान फसी मासूम आवाम कभी तानाशाही के जुल्मोसितम से पिसी तो कभी सियासतदानों की बाजीगरी से। ऐसी मजलूम अवाम बेचारी जम्हूरियत का परचम बुलंद करने के बावजूद दहशतगर्दी का तूफान पाकिस्तान की चूलें हिला रहा है। जम्हूरियत की बेखौफ और बुलंद आवाज भी इंसानी बमों की खौफनाक, लर्जाखेज गूंज में दब चुकी है। यह कहना नामुनासिब न होगा कि पाकिस्तान में हर कोई बारूद के ढेर बैठकर आतिशबाजी कर रहा है और पाकिस्तान दुनिया का सबसे बेकाबू मुल्क बन चुका है। पाकिस्तान की अवाम इश्के जम्हूरियत की कीमत चुका रही है, तो सियासतदां परवरिशे दहशतगर्दी की सजा पा रहे है। जिन दहशतगर्दो को फर्जी जिहाद के नाम पर दूध पिलाया था, वह अब उनका खून पी रहे हैं, और इनसे दामन बचाना मुश्किल हो गया है, खामियाजा भुगत रही है अवाम।
लाहौर में एफआईए की सातमंजिला इमारत का हादसा अलामत है इस बात की, कि तालिबान और अलकायदा ने हुकूमत पर दबदबे का नक्कारा बजा दिया है। कुछ अरसे पहले लाहौर में एक ट्रक बम के जरिये पुलिस को पैगाम दे दिया है मुजाहिदीन के खिलाफ अमेरिका के साथ किसी भी कारगुजारी का अंजाम यही होगा। साथ ही तमाम पाकिस्तान में इंसानी बमों की तैनाती से साबित कर दिया है कि आम चुनाव में भले हार गये हों, लेकिन उनके हौसले बुलंद है। अबतक तो फर्जी और गुमराह मुजाहिदीन की कारगुजारियां सरहदी इलाकों तक ही थीं, मगर कराची, पेशावर, इस्लामाबाद और रावलपिंडी के बाद लाहौर को निशाना बनाया जाना एक बड़े खूनी खेल के आगाज की अलामत है। पाकिस्तानी शहरों में इंसानी बमों के खौफ के साथ कबाइली इलाकों में अलकायदा का साया गहरा होता जा रहा है। कबाइली इलाकों में जासूसी कामयाब न होने से सीआईए परेशान है, इसका सबब है कबाइली इलाकों में अलकायदा के बेहतर ताल्लुकात, जबकि सीआईए की कामयाबी का दारोमदार सिर्फ अलकायदा में फूट पर है। अब अमेरिकी एजेंसियां भी इस बात को तसलीम कर रही हैं कि पाकिस्तान सदर मुशर्रफ ने 2006 में कबाइली शिद्दत पसंदों (कट्टरपंथी) से जो समझौता किया था, वही अलकायदा की सेहतमंदी का सबब है। कबाइली इलाकों से पाकिस्तान फौज की वापसी भी शिद्दतपसंदों को ताकत बख्शने का सबब बनी, जिसकी बिना पर नये ठिकाने और मुजाहिदों की नई भर्ती का आगाज हुआ और इन तमाम खुराफात की वजह है, सदर मुशर्रफ की हिकमतेअमली।
पाकिस्तान की हुकूमत और ओहदे के लालची सियासतदानों और मजहब के सौदागरों से अहम सवाल यह है कि सियासत के बाजीगरों और जंगजूओ की लड़ाई का खामियाजा अवाम क्यों चुकाए? हालिया धमाकों में कहीं फौजी मरे तो कहीं सियासतदां और कहीं पुलिस। इन्हीं के साथ मासूम शहरियों की लाशों के ढेर भी लगे। 22 फरवरी को वादी-ए-सबात में एक बारात जिसमें दुल्हन की डोली साथ थी, ऐसा धमाका हुआ जिसने मासूम दुल्हन के साथ 16 अफराह को मौत की नींद सुला दिया। मेहंदी की लाली पर खुन का रंग गालिब आ गया। इसी तरह इस्लामाबाद की लाल मस्जिद एक्शन के बाद से अब तक तकरीबन एक हजार से ज्यादा अफराह हलाक हो चुके हैं और उनकी हलाकत से न जाने कितनी बेवाओ और यतीमों की ताअदाह में इजाफा हुआ है। इन तमाम कारगुजारियों में वही दहशतगर्द (मुजाहिद) हैं जिन्हें कभी कश्मीर और अफगानिस्तान के लिये तर्बियत दी गई थी। लिहाजा पाकिस्तान को तस्लीम करना पड़ेगा कि 1980 के बाद जिन मुजाहिदीन को उसने सरहदी इलाकों में खेमाजन होने की दावत दी थी, अब मौत का सौदा बन गई है। उस वक्त सोवियत यूनियन ने अफगानिस्तान में हथियार इसलिए डाले थे कि वह जिहादियों के लिए पाकिस्तान से सप्लाई लाईन बंद नहीं कर सका था। बाद में जब तालिबान का गलबा हुआ तो पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में फर्जी और मस्नूई मदरसों में अफगान नौजवानों की भीड़ लग गई। 11 सितंबर के बाद से मुशर्रफ की अमेरिकां नवाजी के सबब एक हजार पाकिस्तानी फौजी दहशतगर्दी की आग में खाक हो गये। कल तक जो जंगजू दोस्त थे 11 सितंबर के बाद बागी हो गये। वादी-ए-सबात में शिद्दतपसंद मजहबी ग्रुप भले ही आम चुनाव हार गये हों, मगर इलाके में दहशतगर्दी का बोलबाला है, इस बात का सुबूत है एक पुलिस अफसर के जनाजे में बम धमाके से 40 अफराह की मौत। कुल मिलाकर गलतियां सियासतदानों ने की है और कीमत अवाम चुका रही है। अब गौरतलब यह है कि अवाम की तामीर की हुई जम्हूरियत की यह इमारत बुनियादी तौर पर कमजोर हैं या मजबूत। चुने गये लीडरान हमदर्द है या खुदगर्ज।
पाशा मियां कादरी
मई 2008
अब तो इस फसल की पैदावार इतनी हो गई है कि संभाले नहीं संभल रही, बल्कि खारदार झाड़ियों की तरह उन्हीं के दामन को चाक कर रही है। कभी लाहौर में धमाके, कभी इस्लामाबाद में, कभी वादी-ए-सबात गूंजती है, तो कभी डेरा इस्माइल खान, कभी रावलपिंडी लरजती है, तो कभी वजीरिस्तान। बेनजीर की रैली के दौरान लर्जा कराची और अगली रैली में कत्ल, कत्ल के वक्त फिर धमाका। धमाके न हुए मानो पाकिस्तान की कौमी धुन हो गई, जो सरहद से लेकर शहरों तक सुनाई देती है। इस खौफनाक आवाज के दरमियान पस्त हो जाती है मौत की चीखें, दम तोड़ देती हैं जख्मियों की आहोकराह। जब यह खौफनाक आवाज खामोश होती है, तो सिलसिला शुरू होता है उन आवाजों का जो आह की शक्ल में छाती पीटते और माथा पीटते करीबी रिश्तेदारों के दिल से होते हुए उनके रूंधे हुए गलों से निकलती है। इसके अलावा बेचारे कुछ कर भी नहीं सकते।
सियासत और दहशतगर्दी के दरमियान फसी मासूम आवाम कभी तानाशाही के जुल्मोसितम से पिसी तो कभी सियासतदानों की बाजीगरी से। ऐसी मजलूम अवाम बेचारी जम्हूरियत का परचम बुलंद करने के बावजूद दहशतगर्दी का तूफान पाकिस्तान की चूलें हिला रहा है। जम्हूरियत की बेखौफ और बुलंद आवाज भी इंसानी बमों की खौफनाक, लर्जाखेज गूंज में दब चुकी है। यह कहना नामुनासिब न होगा कि पाकिस्तान में हर कोई बारूद के ढेर बैठकर आतिशबाजी कर रहा है और पाकिस्तान दुनिया का सबसे बेकाबू मुल्क बन चुका है। पाकिस्तान की अवाम इश्के जम्हूरियत की कीमत चुका रही है, तो सियासतदां परवरिशे दहशतगर्दी की सजा पा रहे है। जिन दहशतगर्दो को फर्जी जिहाद के नाम पर दूध पिलाया था, वह अब उनका खून पी रहे हैं, और इनसे दामन बचाना मुश्किल हो गया है, खामियाजा भुगत रही है अवाम।
लाहौर में एफआईए की सातमंजिला इमारत का हादसा अलामत है इस बात की, कि तालिबान और अलकायदा ने हुकूमत पर दबदबे का नक्कारा बजा दिया है। कुछ अरसे पहले लाहौर में एक ट्रक बम के जरिये पुलिस को पैगाम दे दिया है मुजाहिदीन के खिलाफ अमेरिका के साथ किसी भी कारगुजारी का अंजाम यही होगा। साथ ही तमाम पाकिस्तान में इंसानी बमों की तैनाती से साबित कर दिया है कि आम चुनाव में भले हार गये हों, लेकिन उनके हौसले बुलंद है। अबतक तो फर्जी और गुमराह मुजाहिदीन की कारगुजारियां सरहदी इलाकों तक ही थीं, मगर कराची, पेशावर, इस्लामाबाद और रावलपिंडी के बाद लाहौर को निशाना बनाया जाना एक बड़े खूनी खेल के आगाज की अलामत है। पाकिस्तानी शहरों में इंसानी बमों के खौफ के साथ कबाइली इलाकों में अलकायदा का साया गहरा होता जा रहा है। कबाइली इलाकों में जासूसी कामयाब न होने से सीआईए परेशान है, इसका सबब है कबाइली इलाकों में अलकायदा के बेहतर ताल्लुकात, जबकि सीआईए की कामयाबी का दारोमदार सिर्फ अलकायदा में फूट पर है। अब अमेरिकी एजेंसियां भी इस बात को तसलीम कर रही हैं कि पाकिस्तान सदर मुशर्रफ ने 2006 में कबाइली शिद्दत पसंदों (कट्टरपंथी) से जो समझौता किया था, वही अलकायदा की सेहतमंदी का सबब है। कबाइली इलाकों से पाकिस्तान फौज की वापसी भी शिद्दतपसंदों को ताकत बख्शने का सबब बनी, जिसकी बिना पर नये ठिकाने और मुजाहिदों की नई भर्ती का आगाज हुआ और इन तमाम खुराफात की वजह है, सदर मुशर्रफ की हिकमतेअमली।
पाकिस्तान की हुकूमत और ओहदे के लालची सियासतदानों और मजहब के सौदागरों से अहम सवाल यह है कि सियासत के बाजीगरों और जंगजूओ की लड़ाई का खामियाजा अवाम क्यों चुकाए? हालिया धमाकों में कहीं फौजी मरे तो कहीं सियासतदां और कहीं पुलिस। इन्हीं के साथ मासूम शहरियों की लाशों के ढेर भी लगे। 22 फरवरी को वादी-ए-सबात में एक बारात जिसमें दुल्हन की डोली साथ थी, ऐसा धमाका हुआ जिसने मासूम दुल्हन के साथ 16 अफराह को मौत की नींद सुला दिया। मेहंदी की लाली पर खुन का रंग गालिब आ गया। इसी तरह इस्लामाबाद की लाल मस्जिद एक्शन के बाद से अब तक तकरीबन एक हजार से ज्यादा अफराह हलाक हो चुके हैं और उनकी हलाकत से न जाने कितनी बेवाओ और यतीमों की ताअदाह में इजाफा हुआ है। इन तमाम कारगुजारियों में वही दहशतगर्द (मुजाहिद) हैं जिन्हें कभी कश्मीर और अफगानिस्तान के लिये तर्बियत दी गई थी। लिहाजा पाकिस्तान को तस्लीम करना पड़ेगा कि 1980 के बाद जिन मुजाहिदीन को उसने सरहदी इलाकों में खेमाजन होने की दावत दी थी, अब मौत का सौदा बन गई है। उस वक्त सोवियत यूनियन ने अफगानिस्तान में हथियार इसलिए डाले थे कि वह जिहादियों के लिए पाकिस्तान से सप्लाई लाईन बंद नहीं कर सका था। बाद में जब तालिबान का गलबा हुआ तो पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में फर्जी और मस्नूई मदरसों में अफगान नौजवानों की भीड़ लग गई। 11 सितंबर के बाद से मुशर्रफ की अमेरिकां नवाजी के सबब एक हजार पाकिस्तानी फौजी दहशतगर्दी की आग में खाक हो गये। कल तक जो जंगजू दोस्त थे 11 सितंबर के बाद बागी हो गये। वादी-ए-सबात में शिद्दतपसंद मजहबी ग्रुप भले ही आम चुनाव हार गये हों, मगर इलाके में दहशतगर्दी का बोलबाला है, इस बात का सुबूत है एक पुलिस अफसर के जनाजे में बम धमाके से 40 अफराह की मौत। कुल मिलाकर गलतियां सियासतदानों ने की है और कीमत अवाम चुका रही है। अब गौरतलब यह है कि अवाम की तामीर की हुई जम्हूरियत की यह इमारत बुनियादी तौर पर कमजोर हैं या मजबूत। चुने गये लीडरान हमदर्द है या खुदगर्ज।
पाशा मियां कादरी
मई 2008
हमसाया मूल्क याने पाकिस्तान की बदलती कौमी धुन और शिद्दतपसंदो के हाथो तरक्कीपसंदो की शिकस्त हिन्दोस्ता की फिजा के लिये कुछ शुभ संकेत नहीं है। तारीख गवाह है कि जो सियासतदा कमबख्त शिद्दतपसंदो की पनाह गये, उनके लिये ये भस्मासुर बने। 9/11 से कोई सबक न ले विश्वआका अमेंरिका आज भी दुसरे मुल्कों में शिद्दतपसंदो की दोनो हाथो से मदद कर रहा है। पाकिस्तान तो आज भी सरमायादारो-शिद्दतपसंदो-दहशतगर्दो-साम्राज्यवाद के एंजेटो के चंगुल में फसा गुलाम मूल्क हैं वहा के सियासतदानों से उम्मीद की जाना बेमानी है। लेकिन उधर विश्व की सबसे बड़ी जम्हूरियत होने का दंभ भरने वाले हिन्दोस्ता के लीड़रानो ने भी तारीख से सबक न सिखने की कसम ले रखी है। इंदिरा गांधी को भिडंरावाले के गूर्गो ने हलाक किया, तो वसुंधरा राजे इंदिरा की राह पर आगे बढती दिख रही है। आज गुर्जरों की लाशों पर बैठ, मीणा समाज को गुर्जरों के खिलाफ खडा करवाकर राज करने की वसुंधरा की पालिसी कल को रानी के होश ठिकाने लगायेगी। आर एस एस, विहिप, बजरंग दले के दहशतगर्दो के साथ रोमांस का क्या हश्र हो रहा है गुजरात प्रोजेक्ट के रूप में वह आप सबके सामने है। उधर ठाकरे रूपी भाषायी फासीवादी के उत्थान के लिये काग्रेस-भाजपा दोनो जिम्मेदार है, अपनी गद्दी बचाने के लिये कभी काग्रेस तो कभी भाजपा ने शिवसेना जैसी फासीवादी पार्टी के साथ नापाक रिश्ता कायम दिया। उधर नार्थ-ईस्ट में भी प्रमुख राष्ट्रीय दल अलगाववादी ताकतो के साथ नापाक गठजोड करने से बाज नहीं आ रहे है। आज हिन्दोस्ता की अवाम भी अपने पाकिस्तानी भाईयो की तरह बारूद के ढेर पर बैठी दिखाई देती है।
परेश टोकेकर
2 टिप्पणियां:
वाह भाई ठीक कही। कहते रहो। सही कहो। कही गयी बातें ही दम पैदा करतीं हैं। बधाई।
sahi mudda uthaya hai. lage raho munna bhai
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