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बुधवार, 25 जून 2008

कुमार केतकर के बहाने

बाजारवाद के हाथो अपनी इस्मत लुटवाते मीडिया की दुनिया के बचे-खुचे सचाई परस्त आजाद आवाजों को नित नये फासिस्ट हमलो द्वारा कुंद किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि ये हमले सिर्फ साम्राज्यवाद की तरफ से हो रहे हो, सांप्रदायिक-क्षेत्रीय ताकतो ने भी अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं छोडी है। सत्ता को जेब में रखे हुए कुछ गिरोहों की मनमर्जी को आतंकवाद की घटना क्यों न माना जाए? पिछले दिनों कुमार केतकर पर जिस तरह के फासिस्ट हमले हुवे है अत्यंत दुखद व शर्मनाक है। इसी विषय पर श्री मनोज कुलकर्णी के विचार प्रस्तुत है।
संपादक

लोकसत्ता, मुंबई से प्रकाशित होने वाला मराठी लोकप्रिय दैनिक है। इसके संपादक है श्री कुमार केतकर। केतकर साहब की भारतीय अखबार जगत में खासी प्रतिष्ठा है। उनकी आवाज को ध्यान से सुना जाता है। पिछले दिनों श्री केतकर के मकान पर कुछ लोगों ने हमला किया। ये लोग किसी शिव संग्राम नाम के संगठन से थे। इनके प्रमुख हैं श्री विनायक मेटे। मेटे जी शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के हैं। बड़े दम्भ के साथ उन्होंने इस हमले की जिम्मेदारी ली है। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र सरकार में राकांपा एक नेतृत्वकारी घटक है।


कुमार केतकर का अपराध क्या था? उन्होंने महाराष्ट्र सरकार के एक निर्णय पर अपने अखबार में संपादकीय लिखा था। उक्त संपादकीय में उठाये गये प्रश्नों से श्री विनायक मेटे और उनके गुर्गे आहत हुए। फलत: उन्होंने केतकर साहब के मकान पर तोड़-फोड की।

महाराष्ट्र की देशमुख सरकार ने मुंबई के अरब सागर में छत्रपति शिवाजी की 300 फीट ऊची प्रतिमा लगाने का फैसला किया है। केतकर जी ने इसी मसले पर व्यंग्यपूर्ण भाषा में कुछ असुविधाजनक प्रश्न खड़े किये। उन्होंने जानना चाहा कि क्या महाराष्ट्र में तमाम समस्याऐ हल हो चुकी हैं? क्या किसानों ने आत्महत्याए बंद कर दीं हैं? क्या बेरोजगारी खत्म हो गयी हैं? संपादकीय में शिवाजी को लेकर कोई बात नहीं है। महज यह प्रश्न है कि शिवाजी की मूर्त्ति के जरिए आखिर राज्य सरकार हासिल क्या करना चाहती है?

जनता की गाढ़ी कमाई के लाखों रूपये बड़ी-बड़ी प्रतिमाये लगाकर नष्ट करने के बजाय उसे रचनात्मक कामों में लगाए जाने की जरूरत है। विडम्बना यह है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दल एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं, लिहाज उनमें सामाजिक बदलाव लाने की इच्छाशक्ति का अभाव है। चूंकि साधारण जनता राज-काज चलाने की पेचीदगियों को नहीं समझ पाती, वो महापुरूषों के नाम पर रास्ते, पुल या चौराहे देख-देख कर खुश हो जाती है।

हाल ही में जब केंद्र सरकार ने पेट्रौल-रसोई गैस के दाम बढ़ाए, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और उनके साथियों ने विरोध स्वरूप साइकिल से मंत्रालय जाने का करतब दिखाया। यदि प्रदेश सरकार ये दिखावटी प्रदर्शन करने के बजाय सचमुच की सादगी लाए, भ्रष्टाचार न करे, भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों पर ईमानदारी से सख्त कार्यवाही करे, घोषित योजनाओ को जमीनी स्तर पर लागू करे तो देश-समाज का अधिक भला होगा।

प्रधानमंत्री द्वारा खर्चो में कटौती करने की राष्ट्र के नाम अपील के बाद कुछ प्रभावशाली मंत्रियों ने तुरत-फुरत अपने विदेशी दौरे रद्द किए। क्या ये मंत्री इतने नादान थे कि इन्हें पता ही नहीं था कि महंगाई भयानक तौर पर बढ़ चुकी है? प्रधानमंत्री की अपील से पहले इनमें ऐसी सद्बुद्धि क्यों नहीं जागी? जाहिर है यह कदम दिखावटी और सस्ती लोकप्रियता पाने के हथकण्डे हैं।


हममें से अधिकांश ने अपने गांव, कस्बे, मोहल्ले के नेताओ को पनपते और फलते-फूलते देखा है। हम सब जानते हैं कि देखते ही देखते इनका रहन-सहन, इनकी संपन्नता, इनका वैभव कैसे बढ़ जाता है।

अपराध जगत और राजनीति का जो गठजोड़ हमारे देश में पिछले कुछ वर्षो में बना और बढ़ा है, वो चितंनीय है। इसका मुकाबला वैकल्पिक राजनीतिक आंदोलनों को मजबूत करके ही किया जा सकता है। सादगी पसंद, मेहनती, यथार्थ को जानने, समझने और विश्लेषित करने की वैज्ञानिक समझ और तार्किकता और समस्यायों के मूल में जाकर उन्हें हल करने की राजनीतिक धारा ही इन तमाम प्रश्नों का एकमात्र हल है।

जाहिर है, उसे लाना और स्थापित करना आसान नहीं है। बेतरह की बाधायें है। पर तय कर लेने पर कोई काम मुश्किल नहीं।

अन्यथा कुमार केतकर जैसी आवाजों पर विनायक मेटे हमले करते रहेंगे। कहने को लोकतंत्र रहेगा, चुनी हुई सरकारें होंगी पर विरोध के स्वरों को दबा देने की कुटिलता और चतुराई रहेगी। क्या ये सचमुच का लोकतंत्र है या सत्ता को जेब में रखे हुए कुछ गिरोहों की मनमर्जी?

मनोज कुलकर्णी
(छग व मप्र के पाक्षिक लोकजतन से साभार)

1 टिप्पणी:

Arun Aditya ने कहा…

क्या ये सचमुच का लोकतंत्र है या सत्ता को जेब में रखे हुए कुछ गिरोहों की मनमर्जी? bilkul sahi sawal uthaya hai.