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मंगलवार, 21 जुलाई 2009

मखदूम मोइउद्दीन

मख्दमू मोइउद्दीन जन्म शताब्दी के अवसर पर
कामरेड मखदमू मोइउद्दीन
मुक्तिबोध किसी भी साहित्यकार से अपने पहले परिचय में जो सवाल आवशयक रूप से करते थे वह होता था कि ''पार्टनर आपकी पॉलटिक्स क्या है?''
हमारे साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन, जो बाद में नई पीढी के सामने अंग्रेज भगाओ आन्दोलन कह कर विकृत रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है, हमारा स्वतंत्रता संग्राम था। इस संग्राम के किसी भी साहित्यकार को अपनी राजनीति छुपाने में शर्म नहीं आती थी। मैथलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारीसिंह दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी, मनुलाल 'शील' नागार्जुन, फैज, फिराक कैफीआजमी, आदि हिन्दी उर्दू के सैकड़ों ऐसे कवि शायर हुये हैं जो राजनीति और साहित्य को अलग अलग करने की आवश्यकता महसूस नहीं करते थे और दोनों को ही मानवता के लिए किये गये काम मानते थे। उनके साहित्य में उनकी राजनीति बोलती थी और उनकी राजनीति में साहित्य का रंग नजर आता था। वे इतने ईमानदार लोग थे कि अपनी राजनीति को शर्म की चीज नहीं समझते थे इसलिए अपनी राजनीति को बनियान की जेब में रखने की जगह सामने की जेब में रखते थे। उपरोक्त कवि साहित्यकारों में एक बड़ा शायर ऐसा भी हुआ है जो अपनी राजनीति को मैडल की तरह गले में लटका कर चलता था और वह शायर था मख्दमू मोइउद्दीन।
मख्दमू का जन्म आंध्रप्रदेश के मेडक जिले के ग्राम अन्दोले में 4 फरबरी 1908 में हुआ। मेडक जिला उस समय की हैदराबाद रियासत में आता था। मख्दमू ने उस्मानिया यूनीवर्सिटी से उर्दूसाहित्य में एम ए किया और हैदराबाद के सिटी कालेज में ही पढाने लगे। अपने अध्यापन कर्म के साथ साथ ही उनका साहित्यिक और राजनीतिक काम भी समानान्तर चलता रहा। वे अपने सभी कामों में पूरी तरह डूबे रहे। उन्होंने 46-47 में निजाम के खिलाफ चले खिलाफत आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की तो तेलंगाना के सशस्त्र किसान आंदोलन में कैफी आजमी के साथ बन्दूक लेकर भी लड़े। वे उस समय की कम्युनिष्ट पार्टी -सी पी आई के सक्रिय सदस्य थे तथा बाद में विधायक भी चुने गये और आंध्रप्रदेश विधान सभा में विपक्ष के नेता भी रहे। उन्होंने जेल यात्राएं भी कीं।
मख्दमू मोइउद्दीन को शायरे इंकिलाब की उपाधि से नवाजा गया था पर उनकी शायरी में वे सारे कोमल भाव अपनी उस भाषा और नाजुकी के साथ मिलते हैं जिससे परंपरागत उर्दू गजल पहचानी जाती है। मुझे यह जानकर बड़ा सुखद आशचर्य हुआ था जब मुझे पहली बार पता चला था कि उनकी गजलों को हिन्दुस्तानी फिल्म वालों ने भी बहुत आदर और प्यार के साथ अपनाया है। फिल्म बाजार का वह गीत- फिर उठी रात बात फूलों की' हो या ' दो बदन प्यार की आग में जल गये इस चमेली के मंडवे तले' हो वे उतने ही लोकप्रिय हुये हैं और लोगों की जुबान पर चढे रहे हैं। वेणु गोपाल कहते हैं- कि प्रेम और युद्ध की कविता अलग अलग नहीं होती, आखिर हम युद्ध भी तो प्रेम के लिए करते हैं और बिना प्रेम के युद्ध भी नहीं कर सकते।
मख्दमू की शायरी की दो पुस्तकें प्रकाशित हुयी हैं जिनके नाम 'सुर्ख सवेरा' और 'गुलो तर' हैं तथा गद्य में प्रकाशित एक पुस्तक का नाम 'बिसाते रक्स' है। उनके बारे में शकीला बानू भोपाली और शाहिद सिद्दीकी ने लिखा है कि उनके अन्दर बातचीत करते करते बीच में ही शायरी के अंकुर पैदा होने लगते थे। उनकी प्रसिद्ध गजल 'फिर छिड़ी रात बात फूलों की' का आइडिया सन 1963 में इन्हीं लोगों के साथ बातचीत करते करते आया था। एम एफ हुसैन के साथ ओरिएण्ट होटल में चाय के प्यालों पर प्याले पीते हुये उन्होंने सालों बिताये थे आज भी हुसैन उन क्षणों को बड़ी शिद्दत के साथ याद करते हैं। सन 1940 और 1950 में उन्होंने हुसैन के साथ ही मास्को और पीकिंग की यात्राएं भी की थीं। हुसैन ने उनकी प्रसिद्ध नज्म-
हयात ले के चलो
कायनात ले के चलो
चलो तो सारे जमाने को साथ ले के चलो
पर एक खूबसूरत पेन्टिंग भी बनायी है।

उनकी एक प्रसिद्ध गजल है-
इश्क के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे
दिल के अंगारे को धड़काओ कि कुछ रात कटे
हिज्र में मिलने शबे-माह के गम आये हैं
चारासाजों को बुलवाओ कि कुछ रात कटे
कोई जलता ही नहीं कोई पिघलता ही नहीं
मोम बन जाओ पिघल जाओ तो कुछ रात कटे
चश्म-ओ-रूखसार के अजगार को जारी रक्खो
प्यार के नगमे को दुहराओं कि कुछ रात कटे
आज हो जाने दो हर एक को बद्मस्त'ओ-खराब
आज इक इक को पिलाओ कि कुछ रात कटे
कोह-ए-गम और गराँ और गराँ और गराँ
गमजदो तेश को चमकाओ कि कुछ रात कटे

1 टिप्पणी:

श्यामल सुमन ने कहा…

वीरेन्द्र जी - मुझे कुछ नयी जानकारी मिली आपके आलेख से। धन्यवाद।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com