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शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

स्मरण -शीलजी

स्मरण :शीलजी
उनके सामने सदैव राह ही हारती रही
वीरेन्द्र जैन
मैं कई साल से सोच रहा था कि शील जी के बारे मैं संस्मरण लिखूंगा और उनके जन्मदिन पर ही लिखूंगा किंतु कुछ ऐसा होता था कि उनका जन्मदिन जो प्रतीकात्मक है व जिसे उन्होंने स्वयं ही तय किया था,15 अगस्त को पड़ता है इसलिए अनेक व्यस्ताओं में तिथि निकल जाती थी और बात टल जाती थी। पर इस बार वेब पत्रिका अनुभूति ने उनको याद करके मेरी भूल पर मुझे चपत सी लगायी तो मैं बहुत सारे गैरजरूरी काम छोड़ कर लिखने बैठ गया।
शील जी के सबसे पहले र्दशन मैंने वाराणसी में किये थे। तब वहाँ 1984 में जनवादी लेखक संघ का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन था व मैं जब तक सम्मेलन हाल में पहुँचा तब तक कार्यक्रम प्रारंभ हो चुका था। अध्यक्षमंडल में जो लोग मंच पर थे उनमें एक नाम मनु लाल 'शील' का भी था। उस सम्मेलन में मेरा उनसे इतना ही परिचय हुआ कि मेरे दिमाग में उनका कद स्थापित हो गया था पर मैं उनकी प्रतिभा और रचनाकर्म से अभी अनजान था। सम्मेलन समाप्त होते ही उनसे औपचारिक भेंट भर हुयी थी। उन दिनों में मध्यप्र्रदेश के हरपालपुर नामक बहुत छोटे से कस्बे में पदस्थ था। इसके बाद मैं बैंक में इन्सपैक्टर बना दिया गया जिससे अपना घर परिवार अपने पैतृक मकान दतिया में स्थापित कर मैं नगरी नगरी द्वार द्वारे भटकने के लिए निकल पड़ा था। इस दौरान मैंने एक साल से अधिक मथुरा, गया, भागलपुर, बदायँुु, बिल्सी, लखनउ, बाराबंकी, आदि शाखाओं के निरीक्षण में बिताये कि उन्हीं दिनों मेरे बैंक हिन्दुस्तान कम्ररशियल र्बैंक पर रिजर्व बैंक ने मोराटोरियम लगा दिया व सारे इन्सपैक्टरों को हैड आफिस कानपुर बुला कर विभिन्न स्थानीय शाखाओं में लंबित काम को पूरा कराने के लिए भेज दिया गया । इस आदेश से बैंक के खातों का पूरा लेन देन बन्द हो गया यहाँ तक कि वेतन आदि खर्चे भी रिजर्व बैंक की अनुमति के बाद नगद भुगतान किये जाने लगे।
ऐसे ही एक दिन एक बुजुर्ग सज्जन जो पेंट पर कुर्ता पहने थे मेरे बैंक मैं काउन्टर के बाहर किसी से कुछ पूछ रहे थे। उस दिन मुख्य शाखा के सबमैनेजर छुट्टी पर थे और मैं सबमैनेजर की सीट पर बैठा हुआ था, मुझउन सज्जन की शक्ल कुछ जानी पहचानी लगी और स्मृति पर जोर डालने पर याद आया कि वे तो शीलजी हो सकते हैं। मैं उठ कर उनके पास गया और पूछा कि आप शीलजी ही हैं। उनके हाँ कहने पर मैं उन्हें अन्दर ले आया और कुर्सी आने तक उन्हें अपनी कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। वे बोले नहीं यह तो आपकी कुर्सी है और पास ही पड़े एक बड़े बक्से पर बैठ गये। मैनें उन्हीं के पास खड़े होकर जब उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि मैं जनवादी लेखक संघ से हूँ और उन्हें वाराणसी में मिल चुका हूँ तब उस वयोवृद्ध चेहरे पर जो प्रसन्नता के भाव आये उसकी स्मृति मुझे आज भी रोमांचित कर जाती है। मैंने जब उन्हें उक्त शाखा में होने का कारण बताया जिसके साथ यह चर्चा भी सामने आयी कि बैंक के लेन देन बन्द हैं और हम लोगों का वेतन खाता भी बन्द है तब उन्होंने केवल पन्द्रह मिनिट की मुलाकात में ही अपने पैंट के अन्दर की जेब से चार सौ रूप्ये निकाले और मुझे देते हुये बोले कि इस परदेश में तुम्हें परेशानी हो रही होगी। उनके इस स्नेह और संगठन के व्यक्ति होने भर के रिश्ते से अपनी पूरी महीने भर की पेंशन देने का आग्रह करने वाले व्यक्ति की आत्मीयता देख कर मेरी आंखें भर आयीं। वे ए श्रेणी के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और हर महीने उन्हें पेंशन मिलती थी उसी को निकाल कर ला रहे थे। मैंने उन्हें बताया कि वेतन तो मिल रहा है पर वह नगद मिल रहा है इसलिए पैसे का कोई संकट नहीं है। मेरी बात पर उन्हें तब विश्वास हुआ जब उन्होंने अपने एक परिचित बैंक के बहुत वरिष्ठ ट्रेडयूनियन लीडर जेडी मिश्रा से उसकी पुष्टि कर ली, जो उनके पुराने साथी थे। उन्हें लग रहा था कि मैं संकोच में उनसे ऐसा कह रहा हूँ। उसके कुछ ही दिनों बाद कानपुर में जनवादी लेखक संघ का जिला सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें मथुरा से प्रो सव्यसाची आये तो मैंने उन्हें पूरी घटना सुनायी तब उन्होंने मुझे शीलजी के बारे में विस्तार से बताया जिसे सुन कर तो मैं रोमांचित हो उठा। मुझे लगा कि मेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य था कि मैं उस व्यक्ति के विराट व्यक्तित्व से बिल्कुल ही परिचित नहीं था।
शीलजी वे व्यक्ति थे जिनका लिखा गीत- देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल नया इन्सान बनायेंगे, नया संसार बसायेंगे- आजादी के बाद देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र के हजारों स्कूलों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता रहा है। यह गीत ही असल में ऐसा गीत है जो धर्मनिरपेक्ष देश के स्कूलों में गाया जाना चाहिये था और तब इसका चुनाव करने वालों ने सही चुनाव किया था, पर पता नहीं कैसे कुछ स्कूलों में इसकी जगह- हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये- ने ले ली। उन्होंने बताया था कि वे एक बार किसी सम्मेलन में किसी कस्बे में रूके हुये थे तो सुबह सुबह उन्होंने पाया कि उनके कमरे की खिड़की से स्कूल के बच्चे झांक झांक कर भाग जाते थे, बाद में मालूम करने पर उन्हें पता लगा कि स्कूल के अध्यापक ने उन्हें बताया होगा कि धरती के लाल आये हैं और उन्हें उनको देख भर लेने की जिज्ञासा ही बार बार खिड़की से झांक लेने को उकसा रही थी। वहाँ के स्कूल में वही प्रार्थना गायी जाती थी।
शीलजी ने स्कूली शिक्षा बहुत अधिक नहीं पायी और वे कम उम्र से ही कम्युनिष्टपार्टी से जुड़ गये थे इसलिए उनकी शिक्षा पार्टी की कक्षाओं और व्यवहारिक अनुभवों के आधार पर ही हुयी। कम्युनिष्ट पार्टी ही ऐसी पार्टी है जिसमें राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए नियमित रूप से कक्षाएं लगती हैं और प्रत्येक सदस्य को कक्षाओं में भाग लेना जरूरी होता है। वे उन विरले लेखकों में से रहे जो आन्दोलन में पचासों बार जेल गये और रोचक यह है कि वे जितनी बार आजादी के पूर्व जेल गये उतनी ही बार आजादी के बाद भी जेल गये।
शीलजी बताते थे कि उनकी शादी भी हुयी थी पर वह बहुत ही बचपन में हुयी थी व गाँव में फैली किसी बीमारी के कारण उनकी पत्नी का निधन हो गया था। जब वे फिल्मों में गीत लिखने मुम्बई गये उस दौरान उनका प्रेम प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री गीतावाली से चला पर किसी आन्दोलन के दौरान वे जेल चले गये और उसी दौरान उसने शम्मीकपूर से शादी कर ली। उन्होंने सव्यसाची जी को कभी बताया था कि वे एक बार कार में बैठे गीतावाली से बातें कर रहे थे तब गीतावाली कुछ अधिक ही रोमांटिक बातें करने लगी थी पर जब उन्होंने अगली सीट पर बैठी उसकी बहिन की ओर इशारा किया तो वह बोली कि वह तो गूंगी और बहरी है।
देश के जन नाट्य के इतिहास में पृथ्वी थियेटर का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। उन्हीं पृथ्वीराज कपूर ने शीलजी के लिखे नाटक 'किसान' के आठ सौ से ज्यादा शो किये। बाद में यह नाटक आकाशवाणी ने बिना उनसे अनुमति लिए प्रसारित कर दिया उस पर शीलजी ने आकाशवाणी के खिलाफ मुकदमा दायर किया जिससे अंत में आकाशवाणी को समझौता करना पड़ा और समझौते के अर्न्तगत अन्य शर्तों के अलावा उन्हें एक साल के लिए आकाशवाणाी के सलाहकार बोर्ड का सदस्य भी बनाया गया था। उन्होंने कभी पैसे को जोड़ कर नहीं रखा जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें देख कर कभी भी ऐसा नहीं लगा कि हम इतने महान व्यक्तित्व के पास बैठे हैं। वे हमेशा घर के उस बुजुर्ग की तरह लगे जो अपने छोटों से भी दोस्तों जैसा व्यवहार करता है। शीलजी को भी ए ग्रेड स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण कानपुर के किदबई नगर जैसी महत्वपूर्ण कालोनी में एक बड़ा प्लाट मिला था और मंहगी जमीनों वाले किदबई नगर में वह अकेला प्लाट ऐसा था जिस पर निर्माण नहीं हो सका था, बमुशकिल उन्होंने उस पर एक बेढंगा सा कमरा बनवा लिया था जिसमें फ्लश वाला शौचालय तक नहीं बना था, पर उन्होंने मेरे देखते देखते आनन फानन में तब शौचालय बनवाया जब उनके यहाँ कर्णसिंह चौहान आने वाले थे और उनके पास ही रूकने वाले थे। दिल्ली के प्रोफेसर कर्णसिंह चौहान ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने शीलजी के बिखरे साहित्य को एकत्रित करवा कर प्रकाशित करवाया था। पर उस बार कर्णसिंह नहीं आ सके थे।
उनके उक्त घर में पहुँचने पर वे बहुत ही खुश होते थे और एक मिनिट में आने का कह कर पता नहीं कब बाहर निकल जाते और ढेर सारी खाने पीने की सामग्री लेकर आ जाते थे। मुझे शर्म आती कि यही सब लाना था तो मुझ से कह देते मैं जाकर ले आता। उसके बाद स्वयं ही स्टोव जला कर चाय बनाते और वहीं र्फश पर ही बैठ कर खाया पिया जाता।
जून 1995 के नयापथ में शिवमंगलसिंह सुमन ने उन्हें गहरी आत्मीयता से याद करते हुये लिखा था कि शील एक मेजर, सच्चे जन कवि थे। वे कहते हें कि हमारी मुलाकात सन 1942-43 में बम्बई के एक कवि सम्मेलन में हुयी थी। विकंम संवत 2000 पूरे होने के अवसर पर तब एक बहुत बड़ा जलसा हुआ था जिसमें आयोजित कवि सम्मेलन लगातार तीन दिन तक चलता रहा था। उन दिनों शील मंच पर बेहद लोकप्रिय कवि हुआ करते थे। उसके बाद तो हमने ऐसे अनगिनित कवि सम्मेलन किये जिसमें शील, सुमन, प्रदीप और गोपालसिंह नेपाली साथ साथ रहे। हम लोगों के साथ ही सरदार जाफरी, कैफी आजमी, जाँ निसार अख्तर, और मजाज लखनवी हुआ करते थे। पर शील में पार्टी और विचारधारा के प्रति अद्भुत समपर्ण था। वे कानपुर में कार्मिकों के नेता भी थे, उनकी कविता में आग थी। 42-43 में ही कानपुर में मजदूरों की हड़ताल के प्रमुख नेता के रूप में काम करने वाले शील ने कवि सम्मेलन का आयोजन भी करवाया जिसमें राहुल सांस्कृत्यायन और कैफी आजमी भी पहुंचे थे । उसमें कैफी ने सुनाया था - तुझे बुझते हुये चूल्हों की कसम, कल चिमनी में आग न खिले। सुमनजी लिखते हैं कि उस कवि सम्मेलन में उन्होंने उन दिनों की अपनी प्रसिद्ध कविता 'मास्को अब भी दूर है' सुनायी थी पर शील जी ने जो कविता सुनायी थी उससे वे छा गये थे। शीलने कविता और कर्म दोनों ही तरह से काम किया।नागार्जुन, शील और केदारनाथ अग्रवाल की त्रयी में शील जी ही थे जिन्होंने बकायदा मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की सदस्यता ले रखी थी व न केवल नियमित रूप से लेवी देते थे अपितु पार्टी के सारे अभियानों में भागीदारी करते थे।
मेरी एक कविता उन्हें बहुत पसंद आयी थी और जब भी उनकी अध्यक्षता में मैंने कविता पाठ किया तो उन्होंने वह कविता सुनाने का आग्रह जरूर किया। मेरी समझ में नहीं आया कि वह कविता उन्हें क्यों पसंद आयी है सो एक दिन मैंने उसका कारण भी पूछ लिया। वे बोले कि उस कविता में बिम्ब साफ बनता है और कविता में यही होना भी चाहिये। यह सन 1986 की ही बात है उन्हें बिहार के हजारीबाग से निमन्त्रण मिला था और वे चाहते थे कि मैं भी उनके साथ चलूं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते उन्हें जो उच्च श्रेणी का पास मिला था उसमें दो व्यक्ति यात्रा कर सकते थे, पर मैं किसी उलझन में था और नहीं जा पाया। जब वे लौट कर आये तो उन्होंने बताया कि कार्यक्रम तो अच्छा रहा पर वहाँ से उन्हें पाँच सौ रूप्यों की जो राशि मिली थी वह रास्ते में किसी ने निकाल ली। उन दिनों पाँच सौ बहुत होते थे, मुझे सचमुच अफसोस हुआ पर उन्हें कोई परवाह नहीं थी वे हँसते रहे थे।
उनके कोई दूर के रिशतेदार उन दिनों बहुत आने लगे थे तब उन्होंने बताया था कि उनकी निगाह इस प्लाट पर है पर मैं इसे पार्टी को देकर जाऊँगा। अंत समय में वे कैंसर से पीड़ित हो गये थे तब उनके रिश्तेदार ने आना बन्द कर दिया था और मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने ही उनके अंतिम समय में साथ दिया। वे अपना विराट व्यक्तित्व मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी को विरासत में सोंप कर विदा हुये।
उनका प्रसिद्ध गीत याद करते हुये ही उनको श्रद्धांजलि ।
राह हारी मैं न हारा
थक गये पथ धूल के
उड़ते हुये रज कण घनेरे
पर न अब तक मिट सके हैं
वायु में पद चिन्ह मेरे
जो प्रकृति के जन्म ही से
ले चुके गति का सहारा
राह हारी मैं न हारा
स्वप्न मग्ना रात्रि सोई
दिवस संध्या के किनारे
थक गये वन विहग, मृग तरू
थके सूरज चाँद तारे
पर न अब तक थका
मेरे लक्ष्य का ध्रुव ध्येय तारा
राह हारी मैं न हारा