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बुधवार, 4 नवंबर 2009

व्यंग्य- में गाँव नहीं जा पाया

व्यंग्य
मैं गाँव नहीं जा पाया
वीरेन्द्र जैन
बचपन में राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त की कविता पढ़ी थी।
अहा ग्राम्यजीवन भी क्या है!
पर उन दिनों कविता केवल हिन्दी की किताब में पड़ने की चीज होती थी और उस पर प्रयोग करने की संभावना नहीं थी। फिर मुझे राहत इंदौरी का एक शेर बहुत पसंद आया था। शेर यूँ था-
शहरों में तो बारूदों का मौसम है
चलो गाँव को अमरूदों का मौसम है
पर अब मुझे यह शेर भी 'शेर' की तरह डराता है। हुआ ये कि यह शेर सुन कर मैं गाँव के लिए बिस्तरा बांधने लगा था तभी पता चला कि मालेगाँव में बम विस्फोट हो गया और पता नहीं दुर्भाग्य से या सौभाग्य से यह विष्फोट समय से पहले हो गया और कुछ इस तरह से हुआ कि -
जो तोहे कांटा बुहे, ताहि बूह तू फूल
तुझको फूल के फूल हैं, बाको हैं त्रिशूल
सो भइया हुआ यूँ था कि दूसरों के लिए बम बनाने वालों ने बम तो बना लिये थे पर बेचारे बम बनाने वाले हिन्दू भाई कुछ ज्यादा ही उतावले थे सो बनाने वालों के साथ ही फट गये और त्रिशूल दीक्षा लेने वालों के लिए त्रिशूल बन गये । इन बम बनाने वालों ने तैयारी तो पूरी कर रखी थी। उनके अड्डे से मुसलमानों जैसी नकली दाढी और पाजामे शोरवानी तक बरामद हुयीं थीं जिन्हें पहिन कर वे जाते और प्रत्यक्षदर्शी पुलिस को बताते कि ऐसी रूपरेखा वाले यहाँ घूम रहे थे और यह उन्हीं की करतूत है। मीडिया को मशाला मिल जाता और फिर क्या था उर्वर दिमाग लगातर कहानियाँ उगलते रहते। पर मैं डर गया और कहीं नहीं गया।
कई महीने गुजर जाने के बाद फिर गाँव जाने का भूत सवार हुआ तो मैंने फिर बिस्तर बांधना शुरू किया और फिर वही हुआ। दीवाली से ऐन पहले मडगाँव में पटाखा फट गया जो कुछ बड़ा था और जिसे ले जाकर बाजार में रखने जा रहे दोनों वीर, वीर गति को प्राप्त हुये। ये बेचारे भी उसी गैंग के सदस्य थे जो खुद बम विष्फोट करके दूसरे धर्म वालों पर जिम्मेवारी थोपने का काम अपनी भगवा पार्टी के मुँहजोरों को सौंप देते हैं ताकि महौल में साम्प्रदायिकता छा जाये जो बहुमत के वोटों की बारिश करे। समाज में बंटवारा होगा तो लाभ बहुसंख्यकों की पार्टी को ही होगा।
वैसे मैं तीसरी बार भी चिरगाँव जाने की कोशिश करता पर मेरा दुर्भाग्य कि इस बार हिन्दी के एक कवि की कविता मेरी राह में आ गयी। मैं गाँव जाने को था और स्व क़ैलाश गौतम की कविता कह रही थी-

गाँव गया था गाँव से भागा
पंचायत की चाल देख कर
आंगन की दीवाल देख कर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आंख में बाल देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

नये नये हथियार देखकर
लहू लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै जैकार देख कर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का श्रंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा

कविता तो बहुत लंबी है पर मेरे लिए इतनी ही काफी थी और मैंने सोच लिया कि मालेगाँव, मडगाँव, चिरगाँव, क्या किसी गाँव नहीं जाऊँगा।
............नहीं तो जाऊंगा पर शहर में भी सुकून कहाँ है! और यह अमेरिका तो ग्लोबल विलेज बनाने को तैयार है व हमारे प्रधानमंत्री जिसके लिए उतावले हैं।
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र

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