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शनिवार, 5 दिसंबर 2009

भाषा, बोली व लिपीयों का एक संवाद

हिन्दी-आर्य, द्रविड़, आस्ट्रो-एशियाटिक व तिब्बती-बर्मन चारों भाषा परिवारों के आह्वान पर हिन्दोस्तान के कोने-कोने से छोटी-बड़ी तमाम भाषाओं, बोलियो व लिपियो के लमही पहुचने का सिलसिला शुरू हो गया। ना जाने कितने बरसों बाद इनका मिलन हुआ, कई नये सदस्य अपने ही परिवार के अन्य सदस्यों को ठीक से पहचान नहीं पा रहे थे व अपनी अज्ञानता पर शर्मिंदा हो रहे थे, वही दूसरी तरफ कई सदस्य अपने परिवार तथा अन्य परिवारों के सदस्यों से अपनी समानता देख विस्मीत हो रहे थे। आसपास के शासकीय, बचे-खुचे हिन्दी माध्यम के विद्यालय व कला संकाय के शासकीय कॉलेजों की जर्जर इमारतों में मेहमानो के ठहरने की उत्तम व्यवस्था की गयी, वैसे भी पुरे वतन में इनका खालिस ठिकाना सिर्फ यही बचा रह गया है। अतिथि देवों भवः की रवायत का खास ख्याल रखते हुये विशेष अतिथि अंग्रेजी के वास्ते ज़रा फाईवस्टार व्यवस्था की गयी, उसे पास के शहर की सबसे महंगी इंटरनेशनल स्कूल में ठहराया गया।

उदघाटन सत्र के पश्चात तमाम अतिथियों ने भोजन स्थल की ओर रूख किया। जैसा की अमूमन होता है भोजन के दौरान एक अनौपचारिक संवाद की शुरूआत हुवी, जिसमें कई मेहमान जुड़ने लगे। मध्यभारत की प्रमुख बोली निमाडी ने अपना दुखडा सुनाते हुवे कहा कि बड़ी भाषाओं के वर्चस्ववादी रवैये के चलते हमारी कई साथिने दम तोड चुकी है व कई अन्य मृत्यु की कगार पर है। 'जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरों से क्या कहा जाये' हमें बोलने वालों ने ही हमें घरों की चाहरदिवारों में कैद करके रख दिया है। चलो घर में तो वे हमें इस्तेमाल कर भी लेते है लेकिन बाहर हमें इस्तेमाल करने से कतराते है। बिल्कुल ठीक कहती हो सखी, वैसे हमारे चाहने वालो की हालत भी कुछ खास अच्छी नहीं है, उन्हें वो मान-सम्मान नहीं मिलता जो इन बडी भाषाओं के चाहने वालो को मिलता है, भोजपुरी ने हिन्दी की तरफ इशारा करते हुवे कहा। निमाडी व भोजपुरी की देखा देखी बृज, मगही, कन्नोजी, अवधि, बघेली, बुंदेली, मारवाडी, मालवी व अन्य छोटी भाषाओं ने भी खड़ी बोली हिन्दी को ताने मारना शुरू कर दिया। अवधि ने बात काटते हुवे कहा कि बडी भाषाओं पर या छोटी भाषा-बोली बोलने वालों पर दोष मढ़ना उचित नहीं है। वैसे देखा जाये तो भाषा, मातृभाषा या बोलियो सभी के गुणधर्म समान होते हैं, परंतु सामाजिक-राजनीतिक रूप से सक्षम समुदाय या समुह 'भाषा' बोलते है व कम सक्षम अथवा दुर्बल समुदाय 'बोली' बोलते है। अर्थात बोलने वालो की सामाजिक-राजनीतिक हैसियत ही हमारा दर्जा तय कराती है। यही कारण है कि कम सम्माननीय या निचले दर्जे की माने जाने वाली भाषाओं या बोलियों को बोलने वाले हीन भावना से ग्रस्त हो हमसे दूर जाने लगते है, और अंततः हमारी साथिने अकाल ही काल के गाल में समा जाती है। बिहार से आयी अंगिका ने कहा बिल्कुल सही कहा आपने कम प्रतिष्ठित भाषा बोलने वाले संकोच वश यह मानने को तैयार तक नहीं होते की वे कम प्रतिष्ठित अमूक भाषा बोलते है, जब तक कोई मजबूत सामाजित-राजनीतिक कारण न हो वे प्रतिष्ठित भाषा को ही अपनी मातृभाषा बताना ज्यादा उचित समझते है। अंतराल में एक समय ऐसा भी आता है जब वे कम प्रतिष्ठित भाषा या बोली का अपने निजी जीवन तक में इस्तेमाल करना बंद कर देते है। इसी बीच मराठी ने कहा कि राष्ट्रभाषा बोलने वालों की मजबूत सामाजिक-राजनीतिक हैसियत क्षेत्रीय भाषाओं के मन में भी संशय पैदा करती है ठाकरे परिवार व उनके अनुयायी इसी संशय का फायदा अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिये उठाते है। तमिल बोली 'बहुभाषी संस्कृति' हिन्दोस्तान की प्रमुख विशेषताओं मे से एक है, हमारे यहाँ कई लोग ऐसे मिल जायेंगे जो बहुभाषी है एक से अधिक भाषायें बोलते, लिखते व पढते हैं। अब हिन्दी क्षेत्र में रह रहे मराठी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, तमिल या मलयाली भाषियों को ही लो वे अपनी मातृभाषा के साथ स्थानीय भाषा का भी इस्तेमाल करते आये है। कई मराठी, बंगाली, मलयाली या अन्य भाषीयों ने अपनी-अपनी मातृभाषाओं के समान हिन्दी की भी निस्वार्थ सेवा की है। रही बात क्षेत्रीय या छोटी भाषाओं के विलुप्ति की तो उन्हें बचाने की ज़िम्मेदारी राज्यों की है, आज़ाद हिन्दोस्तान में राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर इसीलिए तो किया गया। हिन्दोस्तान के संविधान में कई ऐसे प्रावधान है जिनके चलते किसी एक भाषा का वर्चस्व स्थापित हो सकना संभव नहीं है, संविधान सभी भाषाओं के लिये समान अधिकारों की घोषणा करता है। परंतु प्रमुख राजनीतिक दलों के स्वार्थी रवैये ने भाषावाद की समस्या को जन्म दिया। मराठी ने बात बढाते हुवे कहा कांग्रेस ने शिवसेना जैसे भाषायी फासीवाद को ट्रेड यूनियन आंदोलन कुचलने के लिये खुब इस्तेमाल किया, इसी भाषावाद ने आगे चलकर मुझे मजबूत करने के बहाने महाराष्ट्र की कई छोटी भाषाओं को लील लिया, इन मरदूदो की कारस्थानी ने मुझे बहुत शर्मिंदा किया है। राज्य अपनी भाषा के साथ किसी दूसरी भाषा को सहायक आधिकारिक भाषा बनाये जाने के लिये मुक्त है लेकिन विडंबना यह है कि ये दर्जा अभिजातवर्गीय भाषा अंग्रेजी को मिला हुवा है। लेकिन ये भाषायी ठेकेदार साम्राज्यवाद द्वारा थोपी अंग्रेजी के खिलाफ एक शब्द भी कहने की जुर्रत तक नहीं करते है, यही इनका दोगलापन उजागर हो जाता है। बंगाली ने कहा अगर राज्य चाहे तो बड़ी भाषाओं को आगे बढ़ाने के साथ-साथ आदिवासीयों की भाषाओं को भी संरक्षित कर सकते है, अब त्रिपुरा का ही उदाहरण ले जहाँ की वामपंथी सरकार ने आधिकारिक भाषा बंगाली के साथ आदिवासीयों की भाषा काकबोराक को सहायक आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाया। 1961 की जनगणना में जहां मात्र तीन महिलाओं ने काकबोराक को अपनी मातृभाषा के रूप में स्वीकार किया वहीं यह संख्या 2001 की जनगणना में बढ़कर 761964 हो गयी। त्रिपुरा की वामपंथी सरकार के इस फैसले का रियांग आदिवासीयों ने विरोध किया जिनकी मातृभाषा रियांग, काईब्रू या ब्रू है। 2001 के जनगणना के आकड़ों के अनुसार रियांग बोलने वालों की संख्या 76450 हैं। एन.एल.एफ.टी. व बी.एन.एल.एफ. जैसे उग्रवादी संगठनों ने रियांग को काकबोराक के विरूद्ध खड़ा करने का षडयंत्र तक रचा, मौका ताड़ प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने एन.एल.एफ.टी. के राजनीतिक संगठन आ.पी.एफ.टी. से चुनावी तालमेल तक करने से गुरेज नहीं किया, लेकिन त्रिपुरा की समझदार जनता ने इस चाल को नाकाम कर दिया। अनौपचारिक संवाद अब एक गंभीर बहस में तब्दील हो चुका था, हिन्दी ने बहस में शरीक होते हुवे कहा कि साथिनों यह एक गलत धारणा है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा हैं। भारत का संविधान हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने की नहीं बल्कि आधिकारिक व अंग्रेजी के सहायक आधिकारिक भाषा होने की घोषणा करता है। इसी तरह राष्ट्रीय या क्षेत्रीय भाषा जैसा कुछ भी संविधान ने परिभाषित नहीं किया। तमिल ने बिल्कुल सही कहा कि हमारा संविधान भाषाओं के लोकतंत्रीकरण की गारंटी देता है, संविधान के हिसाब से सभी भाषायें समान है। वैसे देखा जाये तो मेरी हालत भी चिंताजनक ही मानी जायेगी, हिन्दी की जगह अधिकांशतः अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया जाता रहा है। बाजारवाद ने ऐसा चक्कर चलाया की हिन्दी माध्यम से पढ़े विद्यार्थीयो के लिये रोज़गार के अवसर न रहे, व रोज़गार के लिये प्रमुख शर्त अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान बन गया। इसके चलते हिन्दी से विद्यार्थी दूर होते जा रहे है व शनैः शनैः मैं अपने ही देश में बेघर होने को मजबूर हो गयी। सभी की बातें सुनकर बड़े ही अदब के साथ उर्दू ने कहना शुरू किया, बाजारवाद के चलते चाहे जो संकट पैदा हो गया हो लेकिन कम-अस-कम सभी भाषाओं के लिये कहने को अपना घर तो है, लेकिन मुझे अपने वतन से उजाड़ कर एक देश के तख्त पर बिठाया गया जहाँ में बेगानी तन्हा जिंदगी जी रही हूँ और यहाँ मैरे खुद के वतन में फ़िरकापरस्त ताक़तें मुझे मज़हब के नाम पर बांटते फिर रही है। मुझे मेरी ही बहनों हिन्दी, हिन्दोस्तानी से लडवाया जा रहा है, उधर हिन्दी वाले मुझे मज़हबी आधार पर हिकारत की नजर से देखते है। मेरी सुन्दर लिपी पर नागरी लिपी थोपे जाने की कोशिशें भी चल रहीं है, इस तरह तो मेरा वजूद ही समाप्त हो जायेगा। दिनहीन अवस्था में कुर्सी पर बैठी मोढी लिपी ने टूटती जबान में कहा कि लिपी बदलने की प्रक्रिया से भाषा का विकास होता है या नहीं ये तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इससे एक पुरी लिपी के फना हो जाने का अंदेशा जरूर रहता है। यह अनुसंधान का विषय है कि आज़ादी के बाद मुझे नागरी से बदलने का मराठी के विकास में कितना फायदा हुवा। मेंरा तो ये कहना है कि लिप्यांतर के स्थान पर लिपी सीखने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, भले ही यह कितना ही कठिन या अव्यवहारिक रास्ता क्यो न लगता हो।

भोजनस्थल खाली हो चला था, सभी कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में शामिल होने जा चुके थे। बहस में शामिल भाषाओं, बोलियों व लिपियों ने भी कार्यक्रम स्थल की तरफ रूख किया। जाते-जाते अंग्रेजी हिन्दी व उर्दू से कहते हुवे जा रही थी कि तुम लोग बहुत खुशकिस्मत हो जो तुम्हे इस बहुभाषी देश के हृदयस्थल में स्थान मिला, तुम आम आदमी की जबान हो। मेरा क्या है मैं तो यहा अभिजात्य वर्ग की ...। खैर संस्कृत का इतिहास सभी को ज्ञात है, इसने सिर्फ शासक व उच्च अभिजातवर्ग की सेवा की। एक समय यह दबंगो की प्रमुख भाषा थी लेकिन आज कुछ दक्षिणपंथी सिरफिरों के अलावा इसे अपनी मातृभाषा कहने वाला शायद ही कोई बचा होगा, लेकिन प्राचीनकाल में कमतर दर्जे की समझे जानेवाली प्राकृत जरूर बची रह गयी।