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शनिवार, 8 मई 2010

फ़त्हे-बर्लिन

9 मई 2010 को नाज़ीवाद-फासीवाद की पराजय की 65 वी बरसी बनायी जा रही है। जर्मनी साम्राज्य के शक्ति कैद्र रैहास्टाग के गुंबद पर लाल झंडा फहराते लाल सैनिक की तस्वीर आज भी फ़त्हे-बर्लिन की गौरवगाथा सुनाती है। फासीवाद-नाजीवाद के खिलाफ लड़ाई में 17 लाख से अधिक रूसी सैनिको को अपने प्राणो तक का बलिदान दे दिया। 9 मई इतिहास के पन्ने में मजदूरों के महात्याग का विजय का दिवस है साथ ही यह साम्राज्यवादीयों की लूट की हवस का भी गवाह है जिसके चलते विश्व को दो बार विश्वयुद्घो से मुखातिब होना पड़ा।

फ़त्हे-बर्लिन की 65 वी बरसी के अवसर पर आईये उन अनगिनत गुमनाम मजदुरो व सिपाहीयो को सलाम करे जिन्होंने अपने प्राणो का उत्सर्ग करते हुवे दुनिया को नाजीवाद-फासीवाद के दानव से मुक्ति दिलायी।


फ़त्हे-बर्लिन

खंजरों की बाढ़ तेगों की रवानी खत्म है
रहजनी, गारतगरी, ईज़ा-रसानी, खत्म है
ऑंधियों को ज़लज़लों की कह्रमानी खत्म है
ज़िंदगी पर हादिसों की हुक्मरानी खत्म है

ढल गयी शब सुब्हे-इशरत का पयाम आ ही गया
आफ़्ताबे-मास्को बालाए-बाम आ ही गया

फ़त्ह का शोला लचककर फूल बरसाने लगा
सुर्ख़ परचम सीनए-बर्लिन प लहराने लगा
ज़र्रा-ज़र्रा मस्त होकर ऱक्स फरमाने लगा
चहचहा उट्ठी फ़ज़ा सारा जहॉं गाने लगा

फेंककर फ़ासिज्म का बारे-नहूसत शान से
आज ली दुनिया ने पूरी साँस इतमीनान से

ख़ारो-खस को थी हवस बढ़कर गुले-तर तोड़ लें
जाँ-ब-लब मूरो-मलख़ शाहीं का शहपर तोड़ लें
खोखली तारीकियाँ और माहो-अख़्तर तोड़ लें
संगपारे दामने-दरिया से गौहर तोड़ लें

रौंदकर दुश्मन की कश्ती और दरिया बढ़ गया
जर्मनी पर वोल्गा का सुर्ख़ पानी चढ़ गया

इर्तिक़ा की राह में सौ जाल फैलाये गये
सौ जहन्नुम घात में जन्नत की भड़काये गये
कितने पत्थर साग़रे-हस्ती प बरसाये गये
कितने बादल सामने ख़ुरशीद के आये गये

दब गयी आँधी भी, घटकर रह गया तूफान भी
ले लिया मेहनतकशों ने आज का मैदान भी

हाँ मुबारक हो उन्हें यह कामयाबी यह ख़ुशी
बख़्श दी जिन मनचलों ने ज़िंदगी को ज़िंदगी
उन शहीदों को ख़बर कर दे कोई इस ईद की
जिनकी गाती गुनगुनाती नौजवानी लुट गयी

दह्र में बजता है डंका आज उनके नाम का
सो गये जो मोड़कर रूख़ गर्दिशे-अय्याम का

हाँ मुबारक हो उन्हें यह कामरानी यह बहार
कर दिया फ़ासिज्म का परचम जिन्होंने तार-तार
उन दिलेरों के गले में डाल दो फूलों के हार
बढ़ गया जिनके अमल से आदमीयत का व़िकार

ऐ उरूसे-दहर खुलकर गुनगुना ले झूम ले
रूहे-गेती बढ़के स्तालिन के बाज़ू चूम ले

खेतों को, ख़िरमनों को गुलसितानों को सलाम
तज दिया सब कुछ जिन्होंने उन किसानों को सलाम
टैंकों, गोलों, जहाज़ों, बादबानों को सलाम
जिनमें बम ढाले गये उन कारख़ानों को सलाम

अब कभी नाकामियों का ज़ख्म भर सकता नहीं
इस तरह कुचला गया फ़ित्ना उभर सकता नहीं

कह दो झूमें बाग़ो-सहरा गुनगुऩाये आबशार
अब न लहरायेंगे शोले, अब न बरसेंगे शरार
मिट गया नाज़ी लुटेरों का दो-रोज़ा इक़्तदार
दौड़ जा झुलसे हुए खेतों प ऐ रंगे-बहार

साथ अपने फ़ित्नागर फ़ित्नों की दुनिया ले गये
जो शगूफ़ों को कुचलते थे कुचल डाले गये

कह दो धो डालें वह माँएँ मुस्कराकर दिल के दाग़
जल गये थे जिनके ख़िरमन, लुट गये थे जिनके बाग़
कह दो अब उठकर जलायें देवियाँ घी के चिराग
मिट गये जो तोड़ते-फिरते थे अस्मत के अयाग़

ज़िंदगी पाए-अजल पर जबींसाई कर चुकी
अहरमन की नस्ल दुनिया पर खुदाई कर चुकी

कह दो अह्ले-इल्म फिर ज़ौक़े-नज़र पैदा करें
फिर अदब के फूल हिकमत के गुहर पैदा करें
तीरगी के बत्न से नूरे-सहर पैदा करें
ख़ामशी से नग़्मा नग़्मों से शरर पैदा करें

जिनको चिढ़ थी इल्मो-हिंकमत से, अदब से, राग से
हो गये ठंडे उलझकर ज़िंदगी की आग से

कह दो गूँज उट्ठे तरानों से दिले-अर्ज़ो-समा
कह दो उतरे चाँदनी, दमके फ़ज़ा, महके हवा
जगमगा ऐ रूए-तहज़ीबों-तमद्दुन जगमगा
रक़्स कर ऐ रूहे-मुस्तक़बिल, थिरक ऐ इर्तिक़ा

जश्न यह हव्वा का है और ईद यह आदम की है
कारनामा रूस का है फ़त्ह इक आलम की है

कह दो छलके, कह दो बरसे मस्त आँखों से शराब
लहलहायें आरिज़ों के फूल, माथों के गुलाब
आज से आतिशनवा 'कैफ़ी' उठा लेगा रबाब
मुस्कराये हुस्न, गाये इश्क़, जाग उट्ठे शबाब

मुज्त़रिब शायर भी उनवाने-तरब पा ही गया
कम से कम आज एक पहलू, तो करार आ ही गया

कैफ़ी आज़मी

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