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गुरुवार, 25 जून 2009

वे लोकचेतना में आधुनिकता के अग्रदूत थे

श्रद्धांजलि : डा. सीताकिशोर खरे
गत २४ जून २००९ की रात्रि में डा. सीता किशोर खरे नहीं रहे। वे दतिया जिले की सेंवढा तहसील में गत पचास वर्षो से साधनारत थे। वे इस दौर के उन दुर्लभ साहित्यकारों में से एक थे जो अपनी प्रतिभा के उचे दाम लगवाने के लिए सुविधा के बाजारों की ओर नहीं भागे अपितु अपने जनपद के लोगों के बीच कठिनाइयों से जूझते रहे। उनका गॉंव ही नहीं अपितु वह पूरा इलाका हई डकैत ग्रस्त इलाका रहा है और अपने स्वाभिमान की रक्षा करने तथा नाकारा कानून व्यवस्था से निराश हो सिन्ध और चम्बल के किनारे जंगलों में उतर कर बागी बन जाना व अपना मकसद पाने के लिए सम्पन्नों की लूट कर लेना आम बात है। उन्होंने इस समस्या को राजधानियों के ए.सी. दफ्तरों में बैठने वाले नेताओं अधिकारियों की तरह न देख कर उसके सामाजिक आर्थिक पहलुओं को देखा और उन पर पूरी संवेदना के साथ कलम चलायी जो उनके सातसौ दोहों के “पानी पानी दार है” संग्रह में संग्रहीत हैं-
तकलीफें तलफत रहत, मजबूरी रिरयात
न्याय नियम चुप होत जब, बन्दूकें बतियात
छल जब जब छलकन लगत, बल जब जब बलखात
हल की मुठिया छोड़ कें, हाथ गहत हथियार
और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि-
दौलत के दरबार में, मचौ खूब अंधेर
खारिज करी गरीब की अर्जी आज निबेर
जे इनके ऊॅंचे अटा बादर सें बतियात
आसपास की झोपड़ी, इन्हें ना नैक सुहात
सारा का सारा वातावरण ही ऐसा हो गया है कि-
कछु ऐसौ जा भूमि के पानी कौ परताप
मिसरी घोरौ बात में भभका देत षराप
का पानी में घुर गयौ का माटी की भूल
गुठली गाड़त आम की कड़ कड़ भगत बबूल
इसमें जमीन की गुणवत्ता भी अपनी भूमिका अदा करती है-
माटी जा की भुरभुरी, उपजा में कमजोर
कैसें हुइऐं आदमी, मृदुल और गमखोर
३ दिसम्बर १९३५ को दतिया जिले के ग्राम छोटा आलमपुर में जन्मे डा. सीताकिशोर खरे का बचपन में पेड़ से गिरने पर एक हाथ टूट गया था व समय पर समुचित इलाज की सुविधा उपलब्ध न होने से बने जख्म के कारण उसे काटना ही पड़ा था। अपने एक हाथ के सहारे ही वे मीलों साइकिल चलाते हुये शिक्षा ग्रहण करने जाते थे व अपनी प्रतिभा के कारण उन दिनों भी अध्यापक पद के लिए चुन लिये गये जब विकलांगता को चयन के लिए आरक्षण का आधार नहीं मानी जाता था। अध्यापकी करते हुये भी उन्होंने अध्ययन जारी रखा और एमए पीएचडी की व कालेज के लिए चुने गये जहॉं वे हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे। इस बीच उन्होंने न केवल अपने बन्धु बांधवों को ही पढाया अपितु अपने पूरे परिवेश में शिक्षा और ज्ञान की चेतना जगाने के अग्रदूत बने। अपने ज्ञानगुरू डा. राधारमण वैद्य की प्रेरणा से उन्होंने अपने साथियों और सहपाठियों को आगे बढाया और सामूहिक विकास के साथ काम किया जबकि इस दौर में साहित्यकार दूसरों के कंधे पर सवार होकर अपना स्वार्थ हल करते पाये जाते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने भाषा विज्ञान पर बहुत महत्वपूर्ण काम स्वयं किया तथा अपने साथियों सहयोगियों को भी शोध कार्य में मौलिक और महत्वपूर्ण काम करने के लिए प्रेरित किया। “सर्वनाम, अव्यय और कारक चिन्ह” तथा “दतिया जिले की पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण” उनके कार्यों की प्रकाशित पुस्तकें हैं। कभी उन्होंने अपने प्रिय कवि मुकुट बिहारी सरोज के गीतों पर ग्वालियर के एक दैनिक समाचार पत्र में स्तंभ लिखे थे जिनका नाम था- सूत्र सरोज के, टीका सीताकिशोर की। इन आलेखों का संकलन भी अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
डा. सीताकिशोर के गीतों में मुकुट बिहारी सरोज वाली खनक और कड़क पायी जाती रही है, जैसे-
कल अधरों की अधरों से
कुछ कहासुनी हो गयी, तभी तो
ये मंजुल मुस्कान बुराई माने है
या
इतनी उमर हो गयी ये सब करते करते
अब की कैसा बीज बो दिया सारी फसल खराब हो गयी
हम तो ये समझे थे अनुभव
तुम से रोज मिला करता है
पूरा था विश्वास कि सूरज
रोज सुबह निकला करता है
ये सब छल फरेब की बातें
तुमको सरल सुभाव हो गयीं
अब की कैसा बीज बो दिया सारी फसल खराब हो गयी
डा. सीताकिशोर बेहद संकोची, विनम्र, पर स्पष्ट थे। उन्हें किसी तरह के भ्रम नहीं थे व उनके सपनों के पॉंव सामाजिक यथार्थ की चादर से बाहर नहीं जाते थे। गलत रूढियों और परम्पराओं के बारे में उनकी समझ साफ थी पर वे उसे लोक चेतना पर थोपते नहीं थे अपितु उसमें स्वाभाविक विकास के पक्षधर थे। उनका जाना एक सामाजिक सचेतक लोकस्वीकृत साहित्य के अग्रदूत का जाना है। उनकी बात का महत्व था। आज के बहुपुरस्कृत और प्रकाशित स्वार्थी साहित्यकारों की भीड़ के बीच उन जैसी प्रतिभा के साथ इन्सानियत के धनी लोग दुर्लभ हो गये हैं।
वीरेन्द्र जैन

1 टिप्पणी:

dpkraj ने कहा…

गलत रूढियों और परम्पराओं के बारे में उनकी समझ साफ थी पर वे उसे लोक चेतना पर थोपते नहीं थे अपितु उसमें स्वाभाविक विकास के पक्षधर थे।
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मेरी उनको विनम्र श्रद्धांजलि। उनसे मैं उनसे कभी मिला नहीं पर एक बार ग्वालियर में भारतीय हिन्दी साहित्य सभा में उनका भाषण सुना था। उसका मुझ पर आज तक बहुत प्रभाव है। वह न केवल गजब के लेखक थे बल्कि स्पष्टवादी तथा मधुर वक्ता भी थे। समाज के प्रति उनका जो सोच उस भाषण में मैंने सुना था उसे आज भी याद करता हूं। कहना चाहिये कि भाषा और समाज के विषयों पर आज तक मैंने जितने भी भाषण सुने हैं उनमें वह सर्वश्रेष्ठ था। ऐसी महान आत्मा पर लिखकर अपने दायित्व का निर्वाह कर अपन लेखकीय धर्म निभाया है।
दीपक भारतदीप