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शनिवार, 13 जून 2009

गॉंव का नाम थियेटर मोर नाम हबीब

हबीब तनवीर नहीं रहे। वे उम्र के छियासीवें साल में भी नाटक कर रहे थे।अभी पिछले ही दिनो उन्होंने भारत भवन में अपना नाटक चरनदास चोर किया था तथा उसमें भूमिका की थी।

वे इतने विख्यात थे कि सामान्य ज्ञान रखने वाला हर व्यक्ति उनके बारे में सब कुछ जानता रहा है। कौन नहीं जानता कि उनका जन्म रायपुर में हुआ था और तारीख थी १९२३ के सितम्बर की पहली तारीख। उनके पिता हफीज मुहम्मद खान थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रायपुर के लॉरी मारिस हाई स्कूल में हुयी जहॉ से मैट्रिक पास करके आगे पढने के लिए नागपुर गये और १९४४ में इक्कीस वर्ष की उम्र में मेरिस कालेज नागपुर से उन्होंने बीए पास किया। बाद में एमए करने के लिए वे अलीगढ गये जहॉं से एमए का पहला साल पास करने के बाद पढाई छूट गयी। वे नाटक लिखते थे, निर्देशन करते थे, उन्होंने शायरी भी की और अभिनय भी किया। यह सबकुछ उन्होंने अपने प्रदेश और देश के स्तर पर ही नहीं किया अपितु अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति भी अर्जित की। वे सम्मानों और पुरस्कारों के पीछे कभी नहीं दौड़े पर सम्मान उनके पास जाकर खुद को सम्मानित महसूस करते होंगे। १९६९ में उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला तो १९७२ से १९७८ के दौरान वे देश के सर्वोच्च सदन राज्य सभा के लिए नामित रहे। १९८३ में पद्मश्री मिली, १९९६ में संगीत नाटक अकादमी की फैलोशिप मिली तो २००२ में पद्मभूषण मिला। १९८२ में एडनवर्ग में आयोजित अर्न्तराष्ट्रीय ड्रामा फेस्टीबल में उनके नाटक 'चरनदास चोर' को पहला पुरस्कार मिला।

वे नाटककार के रूप में इतने मशहूर हुये कि अब कम ही लोग जानते हैं कि पेशावर से आये हुये हफीज मुहम्मद खान के बेटे हबीब अहमद खान ने शुरू में शायरी भी की और अपना उपनाम 'तनवीर' रख लिया जिसका मतलब होता है रौशनी या चमक। बाद में उनके कामों की जिस चमक से दुनिया रौशन हुयी उससे पता चलता है कि उन्होंने अपना नाम सही चुना था। कम ही लोगों को पता होगा कि १९४५ में बम्बई में आल इन्डिया रेडियो में प्रोड्यूसर हो गये, पर उनके उस बम्बई जो तब मुम्बई नहीं हुयी थी, जाने के पीछे आल इन्डिया रेडियो की नौकरी नहीं थी अपितु उनका आकर्षण अभिनय का क्षेत्र था। पहले उन्होंने वहॉ फिल्मों में गीत लिखे और कुछ फिल्मों में अभिनय किया। इसी दौरान उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया और वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ कर इप्टा ( इन्डियन पीपुल्स थियेटर एशोसियेशन)के सक्रिय सदस्य बन गये, पर जब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इप्टा के नेतृत्वकारी साथियों को जेल जाना पड़ा तो उनसे इप्टा का कार्यभार सम्हालने के लिए कहा गया। ये दिन ही आज के हबीब तनवीर को हबीब तनवीर बनाने के दिन थे। कह सकते हैं कि उनके जीवन की यह एक अगली पाठशाला थी।
१९५४ में वे फिल्मी नगरी को अलविदा कह के दिल्ली आ गये और कदेसिया जैदी के हिन्दुस्तानी थियेटर में काम किया। इस दौरान उन्होंने चिल्ड्रन थियेटर के लिए बहुत काम किया और अनेक नाटक लिखे। इसी दौरान उनकी मुलाकात मोनिका मिश्रा से हुयी जिनसे उन्होंने बाद में विवाह किया। इस विवाह में ना तो पहले धर्म कभी बाधा बना और ना ही बाद में क्योंकि दोनों ही धर्म के नापाक बंधनों से मुक्त हो चुके थे। इसी दौरान उन्होंने गालिब की परंपरा के १८वीं सदी के कवि नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित नाटक 'आगरा बाजार' का निर्माण किया जिसने बाद में पूरी दूनिया में धूम मचायी। नाटक में उन्होंने जामियामिलिया के छात्रों और ओखला के स्थानीय लोगों के सहयोग और उनके लोकजीवन को सीधे उतार दिया। दुनिया के इतिहास में यह पहला प्रयोग था जिसका मंच सबसे बड़ा था क्योंकि यह नाटक स्थानीय बाजार में मंचित हुआ। सच तो यह है कि इसीकी सफलता के बाद उन्होंने अपने नाटकों में छत्तीसगढ के लोककलाकारों के सहयोग से नाटक करने को प्रोत्साहित किया जिसमें उनमें अपार सफलता मिली।

इस सफलता के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। १९५५ में जब वे कुल इकतीस साल के थे तब वे इंगलैंड गये जहॉं उन्होंने रायल एकेडमी आफ ड्रामटिक आर्ट में अभिनय और निर्देशन का प्रशिक्षण दिया। १९५६ में उन्होंने यही काम ओल्ड विक थियेटर स्कूल के लिए यही काम किया। अगले दो साल उन्होंने पूरे यूरोप का दौरा करके विभिन्न स्थानों पर चल रहे नाटकों की गतिविधियों का अध्ययन किया। वे बर्लिन में लगभग अठारह माह रहे जहॉं उन्हें बर्तोल ब्रेख्त के नाटकों को देखने का अवसर मिला जो बर्नेलियर एन्सेम्बले के निर्देषन में खेले जा रहे थे। इन नाटकों ने हबीब तनवीर को पका दिया और वे अद्वित्तीय बन गये। स्थानीय मुहावरों का नाटकों में प्रयोग करना उन्होंने यहीं से सीखा जिसने उन्हें स्थानीय कलाकारों और उनकी भाषा के मुहावरों के प्रयोग के प्रति जागृत किया। यही कारण है कि उनके नाटक जडों के नाटक की तरह पहचाने गये जो अपनी सरलता और अंदाज में, प्रदर्शन और तकनीक में, तथा मजबूत प्रयोगशीलता में अनूठे रहे।

वतन की वापिसी के बाद उन्होंने नाटकों के लिए टीम जुटायी और प्रदर्षन प्रारंभ किये। १९५८ में उन्होंने छत्तीसगढी में पहला नाटक 'मिट्ठी की गाड़ी' का निर्माण किया जो शूद्रक के संस्कृत नाटक 'मृच्छिकटकम ' का अनुवाद था। इसकी व्यापक सफलता ने उनकी नाटक कम्पनी 'नया थियेटर' की नींव डाली और १९५९ में उन्होंने संयक्त मध्यप्रदेष की राजधानी भोपाल में इसकी स्थापना की। 1970 से 1973 के दौरान उन्होंने पूरी तरह से अपना ध्यान लोक पर केन्द्रित किया और छत्तीसगढ में पुराने नाटकों के साथ इतने प्रयोग किये कि नाटकों के बहुत सारे साधन और तौर तरीकों में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर डाले। इसी दौरान उन्होंने पंडवानी गायकी के बारे में भी नाटकों के कई प्रयोग किये। इसी दौरान उन्होंने छत्तीसगढ के नाचा का प्रयोग करते हुये 'गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' की रचना की। बाद में श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल और लालूराम को लेकर इस पर फिल्म भी बनायी थी।

हबीबजी प्रतिभाशाली थे, सक्षम थे, साहसी थे, प्रयोगधर्मी थे, क्रान्तिकारी थे। उनके 'चरणदास चोर' से लेकर, पोंगा पंडित, जिन लाहौर नहिं देख्या, कामदेव का सपना, बसंत रितु का अपना' जहरीली हवा, राजरक्त समेत अनेकानेक नाटकों में उनकी प्रतिभा दिखायी देती है जिसे दुनिया भर के लोगों ने पहचाना है। उन्होंने रिचर्ड एडिनबरो की फिल्म गांधी से लेकर दस से अधिक फिल्मों में काम किया है तो वहीं २००५ में संजय महर्षि और सुधन्वा देशपांडे ने उन पर एक डाकूमेंटरी बनायी जिसका नाम रखा 'गॉव का नाम थियेटर, मोर नाम हबीब'। यह टाइटिल उनके बारे में बहुत कुछ कह देता है, पर दुनिया की इस इतनी बड़ी शख्सियत के बारे में आप कुछ भी कह लीजिये हमेशा ही कुछ अनकहा छूट ही जायेगा।

वीरेन्द्र जैन
२/१ शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल म.प्र.
फोन ९४२५६७४६२९

1 टिप्पणी:

श्यामल सुमन ने कहा…

हबीब साहब के प्रति श्रद्धांजलि निवेदित है। आपने बहुत विस्तार से बताया है, जिसमें मेरे लिए भी कुछ नयी बातें हैं। कल यानि १४-०६-२००९ को जनवादी लेखक संघ सिंहभूम (झारखण्ड) ने भी शोक सभा आयोजित किया और शहर के तमाम रचनाकारों ने शामिल होकर उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित किया। कुछ ऐसे भी रचनाकार जमशेदपुर में हैं जिनहें हबीब साहब का सान्निध्य भी मिला। एक बार इस शहर में भी आये थे।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com