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शनिवार, 5 सितंबर 2009

अहमद फ़राज़ की याद में

अहमद फराज हमारे दिल में बने हुये हैं
वीरेन्द्र जैन

अहमद फराज साहब से मेरी कभी मुलाकात नहीं हुयी किंतु उनके साथ मुहब्बत उनकी शायरी के साथ मुहब्बत होने के कारण हुयी। उनकी शायरी ने मेरे दिल में पहले जगह बना ली और बहुत बाद में पता चला कि बेपनाह मनपसंद शायरी का शायर कौन है। मैंने किसी मुशायरे की रिपोर्ट पढी थी जिसमें उदाहरण बतौर हर एक शायर की चार छह पंक्तियाँ दी गयी थीं। उन पंक्तियों में जो दिल को असीमित आनंद दे गयीं वे थीं-
सुना है लोग उसे आह भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झरते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
जैसा कि ऐसे अवसरों पर आम तौर पर किया करता रहा था मैं टेलीफोन की ओर दौड़ा जिससे कि अपने निकट के कविताप्रेमी दोस्तों को सुना सकूं। इस खुशी खुशी में मैं शायर का नाम याद रखना ही भूल गया और बात भी आयी गयी हो गयी। पर पंक्तियाँ दिल में खुब गयीं थीं जिन्हें सुनाने के लिए मैं मौके की तलाश में रहता था तथा कभी कभी तो बेमौके भी उन्हें सुनाने की भूल कर बैठता था।
असल में यह बात मुझे बहुत बाद में पता चली कि उक्त शेर पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद फराज की गजल के थे और यह भूल केवल मुझ से ही नहीं हुयी अपितु इस पूरी गजल पर मोहित होने वाले दुनिया में लाखों लोग इसी भूल के शिकार हुये हैं जो गजल में इतने खो गये कि उन्होंने शायर की खोज खबर ही नहीं ली। मुझे उसी समय कृष्ण बिहारी नूर का वह शेर याद आ गया जो केवल नूर साहब ही नहीं सारे अच्छे शायरों के दर्द को भी बयाँ करता है-
मैं तो गजल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गये
इसके बाद जब मैंने अहमद फराज को खोज खोज कर पढना प्रारंभ किया तब वे दिल मे गहरे उतरने लगे। इस मुहब्बत में इस जानकारी ने और भी इजाफा किया जब पता चला कि वे इकबाल, फैजअहमद फैज और अली सरदार जाफरी जैसे प्रगतिशील शायरों के फैन होने के बाद लेखन के क्षेत्र में उतरे थे तथा फैज और अली सरदार जाफरी ही शायरी में उनके मॉडल रहे थे। उनके लिए मेरे दिल में सम्मान का भाव तब और भी बढ गया जब यह मालूम हुआ कि वे पाकिस्तान में फौजी हुकूमत के हमेशा खिलाफ रहे व जियाउल हक के दौर में तीन साल तक आत्मनिर्वासन में ब्रिटेन कनाडा व यूरोप के दूसरे देशों में रहे। वे कहा करते थे कि आसपास घट रही दुखद घटनाओं के प्रति यदि मैं मूक र्दशक बना रहूंगा तो मेरी आत्मा कभी मुझे माफ नहीं करेगी। मैं और क्या कर सकता हूँ , सिवाय तानाशाही निजाम को यह बताने के कि उस जनता की निगाह में, जिसके मौलिक अधिकारों को उन्होंने हड़प लिया है, वे कहाँ ठहरते हैं। मैं सिविल नाफरमानी की घोषणा कर रहा हूं और सत्ता को बता देना चाहता हूँ कि मैं उससे जुड़ने व उसके आदेशों को मानने से इंकार कर रहा हूँ। अहमद फराज साहब ने कभी भी अभिव्यक्ति की पाबंदी को नहीं माना और जीवन भर अपने विचार खुल कर व्यक्त किये। उनके रचना कर्म पर नजर रखने वालों के साथ उनकी भी इस बात पर सहमति रही कि उनका सर्वश्रेष्ठ रचनाकर्म निर्वासन के दौर में ही रहा। इस दौर की उनकी एक रचना महाशरा को बहुत महत्वपूर्ण माना गया। भले ही ज्यादा लोग निम्नांकित गजल को उनके नाम से न जानते हों पर इस गजल को पसंद करने वाले उन्हें जानने वालों से कई गुना अधिक हैं-
रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
यह शेर उनकी निर्वासन के दौर में लिखी वतन को याद करने वाली गजलों में से एक है।
गुलामअली ने उनकी बहुत सारी गजलों को गाया है या दूसरे शब्दों में कहें कि उनके चुनाव के सबसे पसंदीदा शायरों में से एक हैं। उनकी एक गजल में वे बहुत गहरे उतरे हैं वह है-
ये आलम शौक का देखा न जाये
वो बुत हैं या खुदा देखा न जाये
कम लोगों को पता है कि ये शेर भी अहमद फराज का ही है जिसे लाखों प्रेमपत्रों में लाखों प्रेमियों ने बार बार लिखा होगा-
अब के बिछुड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुये फूल किताबों में मिलें
ढूंढ उजड़े हुये लोगों में बफा के मोती
ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें
इस गजल का पहला शेर तो हजारों ट्रकों के पीछे लिखा हुआ भी मिलता है जो उस स्थान पर एक अलग ही अर्थ देता है।

अहमद फराज साहब की शिक्षा दीक्षा पेशावर यूनीवर्सिटी में हुयी जहाँ उन्होंने उर्दू और फारसी की पढाई की। वे जन्म से पश्तो बोलने वाले पश्तूनी थे पर उनकी रचनाओं की विशेषता है सरल हिन्दुस्तानी भाषा और आम जनजीवन से उठाये बिम्बों द्वारा अपनी बात कहना। इसी कारण से वे आम आदमी के दिल में सीधे उतर जाते हैं। उदाहरण देखें-
आशिकी बेदिली से मुश्किल है
फिर मुहब्बत उसी से मुश्किल है
इशक आगाज ही से मुश्किल है
सब्र करना अभी से मुश्किल है
14जनवरी 1931 को नौशेरा पाकिस्तान में जन्मे शैयद अहमद शाह को शायरी और उर्दू के प्रेम ने अहमद फराज बना दिया। वे रेडियो पाकिस्तान में स्क्रिप्ट रायटर भी रहे और पाक अकेदमी आफ लैटर्स के डायरेक्टर जनरल तथा बाद में चेयरमैन भी रहे । उन्होंने कुछ समय पेशावर यूनीवर्सिटी में प्रोफेसरी भी की। उनकी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं।

पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर वे सत्ताधीशों और अवाम दोनों को ही संबोधित करते हुये कहते हैं-
अब किसका जश्न मनाते हो, उस देस का जो तकसीम हुआ
अब किसके गीत सुनाते हो उस तनमन का जो नीम हुआ
उस परचम का जिसकी हुरमत बाजारों में नीलाम हुयी
उस मिट्टी का जिसकी हुरमत मंसूब उदू के नाम हुयी
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क्यों नंगे बदन की बात करो क्या रक्खा है इस किस्से में

उनकी वह प्रिय गजल जब भी याद आ जाती है तो गुनगुनाने का मन करने लगता है। गजल इस प्रकार है-
सुना है लोग उसे ऑंख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको खराब हालों से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मेनम उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुजर के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेरो शायरी से शगफ
सो हम भी मौजजे अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झरते हें
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बामे फलक से उतर के देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी गजाल सी ऑंखें
सुना है उसको हिरन दशत भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगुनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ कर हें काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुजर के देखते हैं
सुना है उसके लवों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पै इल्जाम धर के देखते हैं
सुना है चश्म तसव्वुर से दश्ते इमकां में
पलंग जावे उसी की कमर को देखते हैं
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी गवायें कतर के देखते हैं
बस इक निगाह से लूटे है काफिला दिल का
सो राहरांवे तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तां से मुतासिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
किसे नसीब कि बेपैरहन उसे देखे
कभी कभी दरो दीवार घर के देखते हैं
कहानियाँ ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायें
फराज आओ सितारे सफर के देखते हैं

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आभार इस जबरदस्त आलेख के लिए.

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

behtreen lekh hai...

प्रदीप कांत ने कहा…

MAHATVAPOORNA ALEKH