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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

श्रद्धांजलि हरीश भदानी

श्रद्धांजलि: हरीश भदानी
वे निरंतर विकसित होते रहने वाले रचनाकार थे
वीरेन्द्र जैन
हरीश भदानी जी के न रहने का समाचार जैसे ही इन्टरनैट पर देखा तो लगा कि कोई अपने बहुत निकट का व्यक्ति नहीं रहा है जबकि मेरी उनसे कभी मुलाकात नहीं हुयी। मुझे कैफी आजमी के कहे वे शब्द याद आ गये कि विचारधारा का रिश्ता खून के रिश्ते से भी बढ कर होता है। उनके नाम से मेरा पहला परिचय 1977 में हुआ जब मैं राजस्थान के भरतपुर में पोस्टेड था और उसी दौरान मार्क्सवाद का कखग समझने का अवसर मिला था। भदानी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराने का काम भी कामरेड रामबाबू शुक्ल ने ही किया जिन्होंने मुझे मार्क्सवाद की बेसिक जानकारी दी थी और पहली बार कम्युनिष्ट पार्टियों के मूलभूत भेदों से भी अवगत कराया था। बाद में तो मैं जितने दिन राजस्थान में रहा तब शायद ही कोई साहित्यिक चर्चा ऐसी रही हो जब कहीं न कहीं भदानी जी का जिक्र न आया हो। बहुत बाद में पता चला कि वे सीपीएम की तत्कालीन राज्यसभा सदस्य सरला महेश्वरी के पिता हैं तथा उसके बाद उनसे एक रिश्ता और जुड़ा जब वे मुझे अपने छोटे भाई की तरह स्नेह देने वाले कथाकार, से रा यात्री के समधी बन गये।
11 जून 1933 को बीकानेर में जन्मे हरीश भदानी जी किसी समय राजस्थान के नीरज और बच्चन माने जाते थे तथा उनके गीत और रूवाइयाँ अभी भी उस दौर के लोगों को भावुक बना जाती हैं। 60-70 के दशक में वे प्रेम और विद्रोह दोनों ही तरह के रूमानों के गायक थे और कवि सम्मेलनों में उन्हें किसी साहित्यिक सितारे की तरह बुलाया जाता था। उसी दौरान 60से 80 के दशकों में वे 'वातायन' के सम्पादक के रूप में भी पहचाने गये। 1959 में उनके गीतों का संकलन 'अधूरे गीत' आया तो 1961 में 'सपन की गली' तथा 1962 में 'हंसनी यादों की' नामक रूबाइयों का संग्रह। आज भी उन गीतों और रूबाइयों को याद करके लोग अपने अतीत में डूबने लगते हैं। एक बड़े कवि के रूप में बाद में विकसित हुये हरीश भदानी के ये गीत उनके काव्य का शैशव काल हैं पर आज भी वे गीत किसी शिशु की तरह उतने ही मासूम और प्यारे हैं, जिनके साथ लाखों लोगों के अहसासों से एकाकार होने का इतिहास जुड़ा है। अभी भी लोगों को उनके गीत- तेरी मेरी जिन्दगी के गीत एक हैं- रही अछूती सभी मटकियां- सभी सुख दूर से गुजरे-सात सुरों में बोल- सोजा पीड़ा मेरे गीत की, आदि कंठस्थ हैं, जो कविता की सफलता का सबसे बड़ा मापक यंत्र हैं।
1966 में उनका एक संकलन आया-'सुलगते पिंड' और इसी साल दूसरा संकलन आया 'एक उजली नजर की सुई' इन दोनों ही संकलनों में महानगरीय सभ्यता से परिचय पाने और उसे अपने आलिंगन में समेटने के प्रयास की रचनाएं हैं। नगर की अजनबियत को अपनी छैनी के प्रहारों से तराशने के दौर में रची बसी इन कविताओं के तेवर ही अलग हैं। इसी दौरान वे एक भावुक विद्रोही से एक कम्युनिष्ट में बदल रहे होते हैं।उनके तब के गीत दिल और दिमाग के समन्वय और संतुलन के गीत हैं। इनमें से कुछ के शीर्षक ही अपने कथ्य का संकेत देते हैं जैसे- 'मेंने नहीं कल ने बुलाया है' 'क्षण क्षण की कैंची से काटो तो जानूँ' 'ऐसे तट हें क्यों इन्कारें' 'संकल्पों के नेजों को और तराशो' 'थाली भर धूप लिये' 'सड़क बीच चलने वालों से' आदि। इस दौर के तेरह वर्षों के बाद उनकी लम्बी कविता 'नष्टोमोह' आती है जो पिछले दौर के विद्रोही आवेग का उपसंहार जैसी है। 'रोटी नाम सत्त है' जैसी कविता के लेखक को आपात काल ने जो उत्तेजक बेचैनी दी थी उसके परिणाम स्वरूप वे एक नुक्कड़कवि के रूप में प्रकट हुये व इस दौरान 'भारत की भूखी जनता को अपना लेटीनेंट चाहिये' जैसी रचनाएं लिखी गयीं।
1981 में 'नष्टोमोह' वाले हरीश भदानी फिर एक नये रूप में प्रकट होते हैं और उनकी पुस्तक 'खुले अलाव पकाई घाटी' आती है। इसके एक गीत में वे कहते हैं-
चले कहाँ से
गये कहाँ तक
याद नहीं है
रिस रिस झर झर ठर ठर गुमसुम
झील हो गया है घाटी में
हलचल बस्ती में केवल
एक अकेलापन पांती में
दिया गया
या लिया शोर से
याद नहीं है
वे अपने इन गीतों में दमघोंटू ठहराव के खिलाफ निरंतर बेचैन रहने वाले कवि की तरह सामने आते हैं। पर अपने अकेलेपन और माहौल के सन्नाटे को वे सदैव ही रचनात्मकता से तोड़ते रहते हैं। इस दौरान उनके संग्रह आते रहते हैं। 1982 में सन्नाटे के 'शिलाखण्ड पर' आता है तो 1985 में 'एक अकेला सूरज खेले' और 'आज की आंख का सिलसिला' आता है। 1988 में 'विश्मय के अंशी हैं ' आता है तो 1991 में 'पितृकल्प' और 1999 में 'मैं और मेरा अष्टावक्र' जैसी लम्बी कविताएं सामने आती हैं। इस बीच राजस्थानी में भी संकलन 1984 में बांथा में भूगोल के नाम से आता है।
भदानीजी को मिले पुरस्कारों की भी अनंत श्रंखला है किंतु कुछ प्रमुख पुरस्कार निम्नानुसार हैं
राजस्थान साहित्य अकादमी से मीरा पुरस्कार
प्र्रियर्दशनी अकादमी सम्मान
परिवार अकादमी (महाराष्ट्र) सम्मान
पशचिमबंग अकादमी (कोलकता) से राहुल सम्मान
के क़े बिड़ला फाउन्डेशन से 'बिहारी' सम्मान
उदयपुर में विशिष्ट सम्मान, आदि
भदानी जी ने इसके अलावा साक्षरता कार्यक्रमों जैसे सामाजिक कार्यों में सक्रिय भागीदारी की है व साक्षरता पर उनकी 25 से अधिक पुस्तकें हैं। वे अंतिम समय में कैंसर से पीड़ित थे और एक सप्ताह पहले ही कलकत्ता में अपने नाती के विवाह में भाग लेकर लौटे थे। वे भले ही अब हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनके गीत और कविताएं लम्बे समय तक रहेंगीं।

हरीश भदानी का गीत
रोटी नाम सत है।
रोटी नाम सत है
खाये से मुगत है

ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां
झोलिया फैलाये लोग
मूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाक्लाव भैरवी बजत है
रोटी नाम सत है
खाये से मुगत है

बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़. कूड़ियां
खाकी टोपी वाले भूपे
भरे हैं बन्दूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा स्वाहा होम दे
राज के विधाता सुण
तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाये से मुगत है

बाजरे के पिंड और
दाल की वैतरणी
थाली में परोस ले
हथेली में परोस ले
दाताजी के हाथ
मरोड़ के परोस ले
भूख के धरमराज
ये ही तेरा व्रत है
रोटी नाम सत है
खाये से मुगत है

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

श्रद्धांजलि

परेश टोकेकर 'कबीरा' ने कहा…

साथी हरीश भदानी को श्रद्धांजलि...

प्रदीप कांत ने कहा…

श्रद्धांजलि