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मंगलवार, 22 जनवरी 2008

समाजवाद: यथार्थ के धरातल पर

पूँजीवाद को लाल सलाम लेख में अनिल त्रिवेदी द्वारा वामपंथीयो की निंदा के विरूद्ध खुला पत्र।

घोर कलयुग हैं भाई! हिन्दोस्तान में “सर्वहारा की राजनीति” के अंतिम बचे झंडाबरदारों को गाँधीवादी समाजवादी, पूँजीवादी विचारक, एन.जी.ओ., तथाकथित बुद्धिजीवी, उग्र वामपंथी, कारपोरेट मीड़िया सभी मार्क्सवाद सिखाने पर आमादा है। ज्योति बसु के कथित “समाजवाद अभी संभव नहीं” बयान पर जैसा बवाल मचाया गया उससे ऎसा लगने लगा कि जैसे मानो देश में आज ही क्रांति की जाना हो और वामपंथी इस क्रांति के राह में सबसे बड़े रोड़े हो। हिटलर के फासीवाद को आदर्श मानने वाले संघ परिवार ने तो एक कदम आगे बढ़कर माओवादीयों के सूर में सूर मिलाते हुवे भारतीय कम्युनिस्टों को चीन का अनुसरण तक करने की समझाईश दे ड़ाली। उधर ज्योति बसु की टिप्पणी के बहाने अव्यवहारिकता के धरातल पर खडे तथाकथित प्रगतिशील-समाजवादी चिंतको ने “वैचारिक दरिद्रता” का परिचय देते हुवे एक बार पुन: “समाजवाद” के हसीन ख्वाब को वामपंथी यथार्थवाद की चुनौती के रूप में पेश करने का प्रयास किया।

रही बात “समाजवाद त्यागने” संबंधी बयान की तो ऎसी कोई भी टिप्पणी ज्योति बसु ने कभी की ही नही। इसके विपरीत 22 वें बंगाल राज्य सम्मेलन के अवसर पर ब्रिगेड मैदान पर दसियो हजार लोगो की रैली को संबोधित करते हुवे ज्योति बसु ने कहा कि :- “हम मार्क्सवादी व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते है क्योकि हमारा अंतिम लक्ष्य वर्गविहीन और शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिये समाजवाद निर्माण का है। लेकिन मात्र तीन राज्यो में अपनी सरकारों के दम पर यह लक्ष्य तत्काल हासिल करना संभव नहीं है। समाजवाद की प्रगति तभी हासिल की जा सकती है, जब वामपंथी व जनतांत्रिक शक्तिया इतनी मजबूत हो जाए की राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प का निर्माण कर सके। जनता का विश्वास जीतकर मार्क्सवादी इस लक्ष्य को हासिल करने के भरसक प्रयास करेंगे।” इस टिप्पणी से हमारे प्रिय बुद्विजीवी जो मतलब निकालना चाहे निकाले, लेकिन ज्योति बसु की उपरोक्त टिप्पणी व बुद्धदेव, प्रकाश करात के बयानो में कहीं कुछ भी नया नहीं है, यह तो माकपा के तीन दशक पुराने पार्टी कार्यक्रम की लाईन है। हमारा कार्यक्रम तो दशको से देश के सामने है, लेकिन क्या हमारे समाजवादी बंधु स्पष्ट करेंगे कि भारत में समाजवाद स्थापना के लिये उनके पास क्या कार्यक्रम है? समाजवाद-समाजवाद का नारा लगाने से समाजवाद का निर्माण नहीं होने वाला। पूँजीवाद को कोसकर व समाजवाद को आस्था का प्रश्न बनाकर बहस से बचा जाना प्रगतिशील ताकतो के घोर गैर-जिम्मेदाराना चरित्र का द्योतक है। समाजवाद हासिल करने के राह में मौजूद चुनौतियों से जुझने व जनता को लामबंद करने की जिम्मेदारी समस्त प्रगतिशील ताकतो की है, लेकिन आज भारतीय वामपंथ को कोसने के अलावा इस दिशा में वे (गैर-वामपंथी प्रगतिशील ताकते) ओर क्या कर रहें है स्पष्ट करना चाहिये।

वामपंथी व जनतांत्रिक विकल्प को और विकास के अखिल भारतीय पूंजीवादी माडल के दायरे में एक हद तक सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए किये जा रहे संघर्ष का जनता के बीच बढ़ता हुआ समर्थन माकपा का किसी मृतप्राय: डोग्मा के बनिस्बत अपनाये गये अधिक व्यवहारिक रणनीति की प्रासंगिकता का सबूत है। साम्राज्यवाद के बाजारवादी हमलो के बीच अंतिम आदमी के अधिकारों की रक्षा “समाजवाद” का यूटोपियाई स्वप्न नहीं कर सकता। लक्ष्य प्राप्ति के लिये एक मंच पर आकर देश में व्यवहारिक सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक विकल्प पेश करना समस्त प्रगतिशील-वामपंथी ताकतो का फर्ज है और यही आज की ऎतिहासिक जरूरत भी है।

4 टिप्‍पणियां:

Ek ziddi dhun ने कहा…

jo media communist parties ki baat ko chhapna bhi pasand nahi karta, veh aisi baato.n ko zaroor uchhalta hai, jinke kuchh itar matlab nikaale ja sake.n. aisi baaton mein kuchh ghata-badha bhi diya jaata hai. bhai log bhi aisi baato.n ko lapkte hain aur jaisa is tippani mein likha bhi hai is tarh chhilaate hain, jaise ve samajwad ki ladai lad rahe hon aur usmein badha aa gayi ho...

परेश टोकेकर 'कबीरा' ने कहा…

धीरेश भाई, बिल्कुल सही बात पकडी आपने। मिडीया आज इस जुगत में है कि कैसे वामपंथीयो को अन्य दलो से तुलनीय बनाया जाये। भाई आज तक कोई वामपंथी नेता किसी स्टींग आपरेशन की गिरफ्त नहीं आया, वामपथी नेताआे की सादगी और अनुशासन की दुहाई सभी दल देते है। वामपंथी दलो के मुख्यमंत्रीयो की संपत्तिया एक औसत कांग्रेसी भाजपाई सपाई कार्यकर्ताऔ से भी कम है। हमे इसपर फक्र नहीं है भला क्यो मुख्यमंत्रीयो या अन्य मंत्रीयो के पास लाखो करोडो की जायदाद होना अनिवार्य है। बुद्धदेव, अच्चुयतानंद या माणिक सरकार ने जो उदाहरण सार्वजनिक जीवन में पेश किये है वे अन्य किन्ही भी राज्यो में मिल पाना मुश्किल है। तो एसे में वामपंथी मीडिया के ढाचे में फिट नहीं बैठते है उन्हें (मीडिया) को तो अराजनीती की राजनीती को बढावा देने का ठेका उनके एल पी जी के आकाऔ ने दिया है और जब तर्क समाप्त हो जाते है तो गाली गलौज का इस्तेमाल किया जाना आवश्यक हो जाता है। भाई स्टालीन को जैसा राक्षस घोषित करने की कोशिशे की जाती रही है उसे हम भुला नहीं सकते है। सादा जीवन जीते हुवे अपना सर्वस्व सर्वाहार के हितो के लिये दाव पर लगाने वाले स्टालीन या बुद्धदेव जैसे असाधारण बुद्धिजीवी क्या नरपिशाच हो सकते है?

Ek ziddi dhun ने कहा…

हाँ, एक अजीब सा माहौल है, सब एक जैसे हैं, सब भ्रष्ट हैं जैसे जुमले मध्यवर्ग ने अपना लिए हैं और इनके सहारे वो अपनी बेशर्मी को ढकना चाहता है. हकीकत ये है कि वो जो प्रलोभन से बचकर काम में जुटे हैं, उन्हें देखना ही नही चाहता. कल अपने कवि मनमोहन को अनुराधा कपूर ने एनएसडी में बुलाया था..वे बोले कि किस तरह यूथ ने चीजें बनाईं..इस सिलसिले में उन्होंने भगत सिंह का नाम भी लिया तो कुछ छात्रों को लगा कि उन्हें भगत सिंह बनने के लिए कहा जा रहा है..कुछ ने कहा मार्क्सवाद फ़ैल हो गया है..खैर मनमोहन ने पूंजीवाद के कदम-कदम पर फ़ैल होने, आम आदमी के पिटते चले जाने, थिएटर के जिम्मेदार अतीत और मौजूदा चुनौती जैसे तमाम सवाल उठाये....कुछ ने कहा सब एक जैसे हैं, पैसा कमाने में क्या बुरे है आदि-आदि...
बेहद भयानक दौर है और इस वक्त चीजों को ठीक-ठीक चिन्हित करना और जीवत के साथ खड़े रहना भी बड़ी लड़ाई है...निराशा भी सवाभाविक है..बदले दौर पर असद जैदी कि एक टिपण्णी मैंने पोस्ट की है, आप देखियेगा

परेश टोकेकर 'कबीरा' ने कहा…

भाई, ये उदारवाद का चश्मा चढाये लोग है। वैसे भी मध्यवर्ग जैसा कोई वर्ग दुनिया में होता नही है होते है तो सिर्फ दो वर्ग - पूंजीवादी व सर्वहारा। तथाकथित मध्यवर्ग तो उच्चवर्ग के हाथो कठपुतली है, जब चाहे इसे उपर चढवाकर इस्तेमाल किया जाये, जब चाहे काम निकल जाने पर सर्वहारा वर्ग की भीड में धकेल दिया, पर उच्च वर्ग तक इनको कभी न पहुचने दिया जाये। ये वर्ग शितुरमुर्ग की भांति है जो संकट आते देख मुह छिपा लेता है और सोचता है कि उसे तो शत्रु दिख नहीं रहा इसलिये शत्रु भी उसे नहीं देखेगा। इनकी एतिहासिक नियती हमें तो मालूम है कर लेने दिजीये इनको और थोडा मजा। पर हा शत्रु को ये नहीं देख पा रहे तो क्या शत्रु तो आज इन्हें नंगी आखो देख रहा है। हमारा काम समझाना था समझा दिया। हम हार नहीं मानने वाले समझाते रहेंगे अपनी आखरी सास तक। पर इस मृत मध्यवर्ग को बचाने के लिये नहीं बल्कि एक वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिये।